SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 441
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री सु 位 ४३३ किये हों। अयोग्य खान-पान करे होय इत्यादिक पापन ते जीव लोक-निन्द्य पद पावें । ११६ । बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरुदेव ! इस जीव को पुत्र, स्त्री, माता, पिता, भरतार आदि इष्ट वस्तु का वियोग किस पाप तैं होय ? तब गुरु कही - जानें पर-पुत्र हरे होय तथा पराये पुत्र हरे जान, जानै अनुमोदना करो होय तथा पराई स्त्रीकौं, ताके भरतार तैं वियोग कराया होय तथा पर-स्त्री पुरुष का वियोग सुनि हर्ष पाया होय ताके स्त्री का वियोग होय तथा परका कुटुम्ब माता-पितादिकर्ते वियोग कराया होय तथा पर का कुटुम्बतें वियोग सुनि, महाहर्षवानू भया होय इत्यादिक पाप भावन तैं भवान्तर में जीव कूं कुटुम्बादिक का वियोग होय है । १२० बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरुदेव ! इस जीवक धन का वियोग किस पाप तैं होय ? तब गुरु कहो — जाने पर भव में पर का धन हरया होय तथा चोर तैं, जल हैं, अग्रि तैं, राज्य तैं, फौज तैं इत्यादिक निमित्त पाय, पर का धन नाश भया सुनि अनुमोदना करी होय इत्यादिक अशुभ भावन तें भवान्तर में आपको धन का वियोग होय है । २२२ । बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरुजी ! इस जीव के घर में अग्रि किस पाप तैं लगे है ? तब गुरु कहो -- जानें पर जीवन के घर में जाग लगाई होय तथा पराया घर जलते देख, हर्ष पाया होय इत्यादिक पापन तैं घर में अग्रि लगे है । १२२ । बहुरि शिष्य पूछो। हे नाथ! इस जीवकें कण्ठ विषै नरैल समान मेद किस पाप तैं होय ? तब गुरु कही जाने पर-भव में पर जीवन कौं लाठी, सोठी, मूंकी मार ताका कण्ठ सुजाय दिया होय तथा जानें पर के मुख आगे भार बांध, दुःखी करन्या होय तथा पर के कण्ठ में मेद देख, ताको हाँसि करि बहकाय, हर्ष मान्या होय इत्यादिक पाप भावन तैं भवान्तर में आपके कण्ठ में नरेल ते दीर्घ मेद ही है । १२३ । बहुरि शिष्य पूछी। हे गुरो ! यह जीव सर्व कौं वल्लभ किस पुण्य तैं होय ? तब गुरु कही जाने पर भव में सर्व संसारी जीवनतें स्नेहभाव करचा होय तथा देव, गुरु, धर्म जार्कों महावल्लभ लागे होय तथा जार्कों पर भव में च्यारि प्रकार के संघ के धर्मात्मा जीव, महावल्लभ लागे होंय तथा गुनी जन तैं स्नेह जनाया होय तथा दीन-दरिद्री दुःखित-भुखित, सोचजलधि में पड़े महादुःखी जीव तिनकों देख, दया भाव करि तिनको स्नेह सहित विश्वास उपजाय, सुखी किये होय इत्यादिकशुभ भावन तैं जीव भवान्तर में सब कूं सुखदाई परम वल्लम होय । २२४ । बहुरि शिष्य पूछी है गुरुनाथ जी ! इस जीव के घर, सदैव मङ्गल रहे। सो किस पुण्य तें होय ? सो कहो। तब गुरु कही ४३३ 何 शी
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy