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________________ १५३ द्वीप, कुण्डलवर-द्वीप, संखवर-द्वीप, रुचिकवर-द्वीप, भुजङ्गवर-द्वीप, कुसङ्गवर-द्वीप, क्रौंचवर-द्वीपशबादि के सोलह द्वीप कहे। आगे असंख्याते द्वीपन के अन्त के सोलह द्वीपन के नाम बताईए है। मशिला-द्वीप, हरतालटोडा. सिन्दूरवर- जोगामवर द्वीप वर-द्वीप, हिंगुलवर-द्वीप, रूपवर-द्वीप, सुवर्णवर-दीप, वप्रवर-द्वीप, बैंडूर्यवर-द्वीप, नागवर-द्वीप, मूतवर-द्रीप, पक्षवर-द्वीप, देववर-द्वीप. अहमिन्द्रवर-द्वीप और स्वयम्भूरमस-दीप ए अन्त के द्वीप कहे और विशेष रता जो आदि दोय ससुद्र-द्वीपन का नाम तो और-और है। बाकी असंख्याते द्वीप समुद्र हैं तिनका समुद्र का नाम सो ही द्वीप का नाम जानना ऐसे सामान्य मध्यलोक का कथन कहा। सो एक राजू तो मध्यलोक चौड़ा है। लास्त्र योजन मैरु प्रमाण मध्यलोक की ऊँचाई है। तामैं ही ज्योतिष-सोक जानना और ज्योतिषी देवन का प्रमाण अढ़ाई द्वीप सम्बन्धी सामान्य कहिये है। तिनमैं ध्रुवतारान का प्रमास कहिए है। तहाँ जम्बूद्वीप सम्बन्धी ध्रुवतारे छत्तीस हैं । ३६ । लवरा समुद्र मैं १३६ ध्रुवतारे हैं धातकोखस्ड विर्षे एक हजार दश हैं। कालोदधि समुद्र विध्र वतारे ४२१२० हैं। आधे पुष्कर द्वीपमैं मनुष्य-सोक की तरफ ५३२३० ध्रुवतारे हैं ऐसे सर्व मिलि अढ़ाई द्वीप के विर्षे ६५,५३५ ध्रुवतारे हैं। अब मध्यलोक सम्बन्धी अकृत्रिम जिन चैत्यालय जहाँ-जहाँ हैं, सो ही बताइए है। तहां एक मेरु सम्बन्धी च्यारि वन हैं। एक-एक वन में च्यारि-च्यारि जिन मन्दिर हैं। सो च्यारि वन के सोलह जिन मन्दिर मये और एक मेरु सम्बन्धी च्यारि गजदन्त हैं। तिन पे च्यारि मन्दिर हैं। षट कुलाचलन पै षट। जम्ब शालमली दोय वृक्षन में दोय मन्दिर है। विजया चौतीस पै चौतीस जिन-मन्दिर हैं। बक्षार सोलह 4 सोलह ही मन्दिर हैं। ऐसे एक मेर सम्बन्धी अठहत्तरि भय, सो पांचन के मिलार तीन सौ नब्बे होय। इष्वाकार च्यारिन पै च्यारि जिन-मन्दिर हैं। मानुषोत्तर की चारों दिशा सम्बन्धी च्यारि जिन-गह हैं। नन्दीश्वर के च्यारि दिशा सम्बन्धी बावन जिन-मन्दिर हैं भार ग्यारहवाँ कुण्डलगिरि-द्वीप के मध्य भाग कुण्डलगिरि है ताकी चारों दिशा च्यारि जिन-मन्दिर हैं और तेरहवाँ रुचक गिरि-द्वीप ताके मध्य भाग में रुचिकगिरि पर्वत है। ताके चारों दिशा च्यारि मन्दिर हैं। ऐसे सब । मिलाईए तो च्यारि सौ अठावन भए, तिनकं बारम्बार नमस्कार होहु । ऐसे यहां सामान्य मध्यलोक का कथन पुर्ण किया। प्रागे ऊर्ध्व-लोक रचना सामान्य कहिये। तहां स्वर्ग-लोक के दोय भेद हैं। एक कल्पवासी,
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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