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________________ भी बताया। सो विवेकी इन सर्व के वचन सुनि, धर्मात्मा का वचन सत्य जानि, अद्धान करि, पाप का फल दुस्स जानि पाप तणि, धर्म के सेवन में जतन करें ।७२। आगे ऐसा कहैं हैं जो पहले घर की तजि, कुटुम्ब को तजि भेष धरि, फेरि घर मित्र चाहै ताकों कहा कहिए । सो बतावे हैंगाथा-मिन्दयतजि कुटइछये, दाणा ताज देण भूठ आचन्तौ । मन्यू ताज मित्तो, उ4 ब को होय सांगधर बादा ॥७३॥ अर्थ-मिन्दय लजि कुटइछये कहिये, मन्दिर छांडिटपरिया (झोंपड़ी) चाहै। दाणो तजि देण मूठ जाचन्ती कहिये, दान का देना तजि उल्टा भीख मांगे। बन्धू तजि इछमित्तो कहिये, कुटुम्ब तजि फेरि मित्र चाहै। तब गयको होय सांगधर जादा कहिये, तेरी कौन गति होयगी? है स्वांग धरनहारे आत्मा। भावार्थ-केतक भोले शुभ विचार रहित इन्द्रिय सुख के लोभी प्रमादी तिन. गृह की अनेक क्लेशता देखि उदास होय, घरकू तजि भैष धारचा पीछे भेष का निर्वाह करना विषम जानि जांचते लागे। फिर इन्हें टपरिया छप्पर मन्दिर बनाते देखि औरतें स्नेह करते देखि इत्यादिक विपरीत भेष देखि कै गुरु हैं, सो दया करि शिक्षा सहित हितोपदेश करते भये। भो भव्य ! तेरे पुण्य-प्रमाण मन्दिर में रहै था तिसको तजि जोग धारया। सो तू अब मन्दिर बनाधाया चाहै तथा घास को कुटी व छप्पर बनवाने के निमित्त आश्रय देखता फिर है । सो हे भाई! तु पहिले क्यों मुल्या? हे भव्य ! अपने घर में तब तो तूं औरनकं स्थान देय सहाय करैथा। अब घर तजि टपरिया बनवानक, दोन भया फिरै है। ताते घर तजना योग्य नाहीं था और अब तज्या हो है। तौ वन-विहार करना योग्य है। गुफा, मसान (मरघट ) वृक्ष की कोटर मैं तिष्ठना योग्य है। अस ऐसो शक्ति तेरी नहीं थी तो घर तजना योग्य नहीं था और देखि हे भव्य ! घर विर्षे था तो अपनी शक्ति प्रमाण दीन-दुखीकों दान देय दया-भाव करि पौखें था। अब तूं घर विषं दान देना तजि उल्टा घरि-घरि दोन मया भीख जांचता फिर है। सो भी तोकू योग्य नाहीं। तोकू अजाचीक रहना योग्य है और सुनि हे भाई! घर के पिता, माता, पुत्र, स्त्री, माई, सज्जन मित्रादि स्नेहो मोह के करनहारे तिनकं तजि, अब भेषि धरि अन्य गृहस्थनकौं सम्बोधन देय खुशामदि करि विनध करि तिनत नेह बधाय मोह के बन्धन में फेरि बन्ध्या चाहै है। अर वह तो तू ते मोह करते नाहों। तातै मोह बधावना था. तो तौकी घर तजना योग्य नाहीं था। अस अब घर तण्या है तो निर्मोही रहना योग्य है। ताते हे अजान! भोले ते घर तजि मन्दिर
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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