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________________ बी § " fir ३४१ बाग बेच्या । सो वह बाग काट के लकड़हारे ले जांय हैं। सो देखो याकी मूर्खता, जो साल की साल पांच सौ रुपया देनेहारे बाग कूं काष्ठ काटनहारे कूं देय है। सी ये रुपैया एक बार के होय जाय हैं। पोछे आप दुःखी होय है। बाग की शोभा जाय है। मिष्ट फल जाये हैं। बाग का नाम जाय है और आप कुटुम्बी सहित दुःखी होय है। ये रुपया बरस एक में खा लेवे है तथा उस वन की रक्षा छाड़ि, कोई विषय कषाय नृत्य-गीतादि में लागि जाय है। सो बाग के बिगड़ने तैं बड़ा दुःखी होय है। एक बार ही नृत्य गीत के सुख हो हैं। परन्तु जिस बाग के पीछे, सर्व कूं रोटो थी। सोच नहीं रहे था, सर्व गीत-नाच अच्छे लागें थे। सो उजाड़ था। तो सर्व कुटुम्बी सहित दुःखी भया । जैसे—- बाग रहे सुखी रहेगा, तैसे हो धर्म रूपी बाग के फलन करि सदैव सुखी रहे है । ऐसे धर्म- बाग की रक्षा कू' भूलि, विषय- कषाय में मगन होय रहेगा, तौ धर्म रूपी बाग के विनाश तैं आप दुःखी होयगा। एक बार का ही विषय सुख होयगा और पहले सदैव बाग की रक्षा करि, पीछे विषय - सुख भोगेगा। तो ताके फल तैं सुखी रहेगा। तातें है भव्य ! तू ऐसा जानि । जो आत्मा कूं नरकादि खोटी गति होय है। सो ये धर्म-धात का फल जानना जे आंव धर्म-काल में धर्म-घाति करि, पाप का सेवन करि, विषय-भोगन में रत होवेगा । सो नरकादि कुगति के दुःख भोगवेगा और जो धर्म-काल में धर्म का सेवन सहित, धर्म की रक्षा करेगा। पोछे अपने विषय भोग भोग्या करेगा। अपने पुण्य प्रमाण मिले जो भोग, सो सन्तोष करि भोगेंगा, तो खोटी गति न होगी। ऐसा जानना और तैंने कही आगे बड़े-बड़े राजा इन्द्रियजनित सुखनकं पापरूप जानि, तिनकू तजि, उदास होय, दिगम्बर होय, दीक्षा धारी। सो है भाई ! सुनि । इन राजाननें दीक्षा धरी । अरु इन्द्रियजनित भोग तजे । सो नरकादिक के भय, दीक्षा नहीं धारी है। नरकादिक के दुःखन का अभाव तौ गृहस्थ अवस्था के धर्म सेवन करि होय। घर ही विषै अपने कुटुम्ब में तिष्ठतें, धर्म का सेवन करि, सुखतें पर्याय छाड़िते, तौ देवादि शुभ गति पावते । परन्तु हे भाई! घर विषै, कर्म का नाश करि मोक्षस्थान चाहे । सो घर में मोक्ष नाहीं होय । तातें भव्यात्मा, जे निकट संसारी हैं तिनने मोक्ष होवे कूं, सर्व कर्म-नाश करि शुद्ध भाव होवे कूं, राग-द्वेष तजी कूं, केवलज्ञान प्रगट करवे कूं, जनम-मरण के दुःख दूरि करवे कूं, सिद्ध पद के ध्रुव सुख पायवे कूं. दीक्षा धारी है। ऐसा भाव जानना । जिन्हें नरकादिक खोटी गति होय है ૨૪૨ स रं गि पी
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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