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________________ होय, आप हो आय नमैं। केई व्रतन का फल रोसा प्ररुप्या है जो याके किये राज-सभा मैं आदर पावै, सभा ।। यशि होय । केतक व्रतन का फल ऐसा कह्या, जो इनकी करै तौ लोकमान्य होय, जगत् मैं पूजा पावै। या व्रतते । धन होय और स्त्री करै तौ बहुत दिन लौ ताका सुहाग रहै, मार मरै नाही, पुत्र होय, सास-श्वसुर सर्व ताको ।। २१७ जाम्राय मान, यश पावे, भतार वश होय। इत्यादिक व्रत हैं सो क्रोधी, मानी, मायावी. दगाबाज, लोभी, पाखण्डी जीवन के प्ररूपं हैं। जो भोरे जीवन को तनिक कौटिल्य ताका लोभ बताय, अपनी महन्तता-धर्मात्मापना बताय लोकन का धन हरि लेय जाते रहें। ऐसे दुरात्मा जो ऊपरी ते शान्ति मुद्रा भेषि बनाय, भोरे जीवनकू विश्वास देय, ठग लेय। ऐसे जीव धर्म भावना रहित, तिन मैं रा कु-व्रत प्ररूपे हैं। सो सम्यग्दृष्टि करि सहज हो हैय हैं और जे व्रत हिंसा करि सहित होय, जिन व्रतन में अनगाले अलमैं नित्य सपरना कह्या होय तथा जिन व्रतन मैं नाना प्रकार जम्नादिक वनस्पति का उगावना कह्या होय, सो व्रत हेय हैं तथा जिन व्रतन मैं ऐसा कह्या हो, कि जो पशूनकों भोजन दिए अपने देवादि तृप्त होय, सो व्रत हेय हैं और जिन व्रतनमैं दिन-भोजन छोड़ि, रात्रि-भोजन कह्या है। सो व्रत हेय हैं। जिन व्रतन में ऐसा कह्या, जो बाम मोटा-बानोट सापान: है सेहत देश हैं। कोई व्रत ऐसा जिसमैं लड्डू खावना कहा है, ऐसा व्रत हेय है। कई व्रतन मैं ऐसा कहा है जो आजि सूत व रेशम के तागा बनाय ताकौ राती गांठि दीजिये पीछे भुज-बन्ध करना काह्या, सो व्रत हेय हैं तथा इस व्रत के दिन । पशनको पूजिरा, घास पूजिये तथा पंचेन्द्रिय पशन का मल-मूत्र पूजिये तथा इस व्रतमैं तिल-तेल ही खाईए है तथा इस व्रत के दिन गुड़-भोजन शुम कह्या इत्यादिक इन्द्रियन के पोषनेहारे कामो-लोभी जीवन के प्ररूपे तन । पुष्ट कारी व्रत सो हेय हैं तथा इस व्रतमै दुध-दही खाईए है तथा दुध ही डारिए है तथा इस व्रत मैं जीवनकौ। मारिए इत्यादिक कु-वत भोरे जीवन के करवे योग्य हैं। इन्हें मानी ज्ञान-धन-हीन जीव ही करे हैं। ऐसे ही 1 मोही जीवन के प्रलये हैं। सोर व्रत मोक्ष-मार्ग के ज्ञाता सम्यग्दृष्टि के धारी जीवन कं सहज ही हेय हैं। इति ।। कु-व्रत । आगे सुव्रत कथन-भो भव्य ! सुव्रत तिनका नाम है जिनके किरा अपने अगले पापन का नाश होय । जिन व्रतन का नाम लिए पुरय बन्ध होय। जिन व्रतन के आगेदाता का निशान प्रगट चलता होय सो दयासागर शुभ-व्रत हैं। जिनमैं पापारम्भ का त्याग होय शुभाचार सहित जिनमैं क्रिया कही होय। सप्त-व्यसनादिक पाप। २१७
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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