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________________ ||११६ जावो इत्यादिक पु अजीव का स्वरूप कह्या तैसे ही सम्यक होते ये विचार सहज ही होय उपजे हैं। पर-वस्तुनते ममत्त्व टि भरम || मिटि शुद्ध श्रद्धात होय है। सो अमर्तिक शुद्धात्मा सिद्ध भगवान ताका स्वरूप सम्यग्दृष्टि अपने अनुभवन मैं | ऐसा विचार है। चौदहवें गुणस्थान जा शरीर मैं तिष्ठता आत्मा, अपनी शुद्ध परिणति के जोगते जा शरीर मैं धा, ताके हाड़, मांस, चांम नशादि जो पुद्गलीक आकार स्कन्ध सो तिनको छोड़िकता शरीरके आकार आप । चेतनरूप सिद्ध देव होय तिष्ठ। तैसे ही सम्यग्दृष्टि विचार है, जो मैं भी दिव्य दृष्टित निश्चय करि देखौं तो अपना चैतन्य भाव इस पुद्गलीक शरीरतें, ऐसे भिन्न विचारों हौं। कि जो मैं वर्तमान में ए शरीर क्षेत्र में तिष्ठौं हौं । सो या तन मैं देखन-जाननहारा गुण तो मेरा है यह तन जड़ है। सो आयु अन्त खिरे है तथा सिद्ध होते खिरे है। सौ तैसे ही मैं ती या क्षेत्र मैं सिटीही हौं। जर या तन के चांभ. हाड़, मांस, नश, पुद्गलीक आकाररूप मर्तिक हैं, सो मेरा अङ्ग नाही, मैं तौ चेतन्य हौँ । ए चाम तन के खिर जावो, मांस स्कन्ध खिर जावो, हाड़ सिर जायो इत्यादिक पुद्गलीक स्कन्ध खिरे हैं तो खिरौ। मैं देखने-जाननेहारा, मेरे स्थान मैं तिष्ठौ हौं। सर्व पुद्गलीक मर्तिक मेरे प्रदेशनत एक क्षेत्र हैं, सो सर्व खिर गये। मैं हो एक, जमर्तिक देखने-जाननेहारा, सिद्ध समानि आत्मा रहजा हौं । सम्यक होते आया-पद का विचार ऐसे भी होय है। ऐसा विचार होतें सम्यग्दृष्टिनक शरीरादि पर-वस्तुनतें ममत्व छूटे हैं पर-वस्तुनः ममत्व छूटनेते निराकुलता सहज ही प्रगट होय है। निराकुलता प्रगट चारित्र की बधवारी (बढ़वारी) होय है और चारित्र की वृद्धित विशुद्धता की विशेष वृद्धि होय है। विशुद्धता वधे (बढ़े) केवलज्ञान की प्राप्ति होय है और केवलज्ञान भए संसार भ्रमरा मिटि सकल शुद्ध सिद्ध पद पाय सर्व सखी होय है। पीछे सिद्ध स्थान विराजि अकलक निर्दोष सिद्ध होय हैं। जगतपूज्य पदधार अविनाशी सुखरूप होय है। ऐसे सिद्ध पदको हमारा नमस्कार होऊ। इनकी मक्ति के प्रसाद मौकी इन-सा पद होऊ। ऐसे भी सम्यग्दृष्टि भावनामाय, अतिशय सहित पुण्यबन्ध का संचय करे है। इहाँ प्रत्र-जो सम्यादृष्टिको पुरय की इच्छा काहे को चाहिए ? और तुमने कहा जो अतिशय सहित पुण्य का बन्ध सम्यग्दृष्टि हो कर है, सो औरन के क्यों नहीं होय ? अरु अतिशय सहित पुण्य काहेकौं कहिए ? ताका समाधान। भो भव्य ! जो पुण्य के बन्ध भये पीछे वह पुण्य घटने नहीं पावै। दश पांच-मव जैते लेना होय, तेते त्र हैं, सो सर्व खिर गये। म सा विचार होते सम्यग्दृष्टि
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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