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________________ १५ अरु कम-रहित शुद्ध जीव तिन सहित यह असंख्यात प्रदेशी, सो सर्व रचना जामैं पाईए, सोरोसा लोकाकाश ।। है। यामैं षट् द्रव्य तिष्ठ हैं। इति आकाश-द्रव्य । ऐसे ए षट् ही द्रव्य अपने-अपने गुण-पर्याय सहित, अपने अपने स्वभावमैं हैं एक क्षेत्र में सर्व की स्थिति है, परन्तु कोई काहूत मिलते नाहीं। ऐसा कोई अनादि व्यवहार है जो कोई द्रव्य काहू द्रव्य तें मिलता नाहीं। किसी के गुणते कोई का गुण नहीं मिलै किसी पर्यायतें पर्याय नहीं मिले। ऐसी रदासीन वृत्ति है। जैसे एक गुफा मैं षट मुनि बहुत काल रहे। परन्तु कोई काहूत मोहित नाहीं। उदासीनता सहित एक क्षेत्र में रहैं है । तैसे ही षट द्रव्य एक लोक क्षेत्र में जानना। तिनमैं पञ्च अजीवद्रव्य हैं। तिन पञ्च अजीव-द्रव्यन के गुण मी अजीव हैं। पर्याय भी अजीव है। एक चेतन-द्रव्य है। ताके द्रव्य, गुण और पर्याय भी चेतना हैं। तातै भो भव्यात्मा ! तू देखि यह जीव ज्ञानरूप देखने-जानने रूप है । सो अनादि पर-द्रव्यन के मोहते, परमैं ममत्व भाव धरकै. आपा भलि, पर-द्रव्यको अपना इष्ट जानि पररूप-सा होय गया। आप अमूर्तिक है । सो भलित आपकं मूर्तिक जड़ भावरूप मानने लागा, परन्तु जड़ नहीं होय गया। बाप अपने चेतना के व्यवहार को नहीं तजै है। जैसे—कोई नट मनुष्य लोभ के वशीभूत होय अपने तन नाहर की खालि नावि, सिंह का स्यांग धरि आया, नाना चेष्टा, कंदना, धडूकनादि भी करै है। ताक् देखि अजान भोरे जीव याको सिंह जानि भयभीत होय हैं। परन्तु यह सिंह नाहीं है। लोभ के वशीभूत होय इस नटने अपना रूप पशु का बनाया, आपकू पशु मानि विचरै है। परन्तु पशु नाही, नर ही है। तैसे ही यह संसारी जीव अपनी जनादि भलित जागति मैं गया, ताही गतिरूप होय रह्या । च्यारि गति के शरीर पुद्गलोक अनेक धारि, आपकौं देव नारकादि आकार मान्या, मैं देव हो, मैं नारकी हौ. मैं पशु हौ. मैं मनुष्य ही, मैं सुखी हौं मैं दुखी हाँ, यह धनधान्यादि कुटुम्बी मेरे हैं। मैं बड़े तन का धारी हौं। ऐसे आपकौं कर्म निमित्ततें जड़ समान पुद्गलीक तन मैं तिष्ठता, अचेतन को चेष्टा बतावता भया। परन्तु अपना विशेष देखना-जानना रूप बैतन्यरूप भाव सो नहीं | घुटता भया। आप जीव ही है। जैसे नट. सिंह की खालि नाखि दुरि भया, तब सबका भरम गया। सर्व याकं ११५ र मानते भये। यह भी नर हो रह्या और आगे भी नर ही था । भरमतें सिंह भया था। तैसे तनरूपो खालि तजि, तब शुद्ध आत्मा भया। ऐसे जीव अजीव का स्वरूप है। सो हे भव्य! तु निश्चय करि जानि। जैसे जीव,
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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