SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 414
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ You होय तथा घर के मनुष्य पकड़ने का भय दिया होप तथा राज-पंच का भय बताय, भयवन्त किये होंय तथा चोर, सिंह, हस्ती इन आदिपशन का भय देय दुःखी किये होंघ तथा रण ते भागते भयवन्त दीन जीव, तिनकी ।। हाँसि करी होय तथा औरनकौं भयवन्त कायर देख आप हर्षवन्त भया होय इत्यादिक दया रहित भावन ते कायर होय है। २५ । बहुरि शिष्य प्रश्न करता भया । हे गुरो! यह जीव शरवीर निर्भय कौन पुण्य से होय? तब गुरु कही-है वत्स ! जिन जीवन नैं पर-भव में दोन जीवनकौं अभयदान दिया हाय । करुणा करि पर-जीवन की रक्षा करी होय तथा किसी जोव ने काहू दीन-दुःखी जीवको भय बताय दुःखी किया होय । ताको देख आप दया-भाव करि, अपने भुजबलतं दोनकौं दुष्ट तें बचाय, सुखी करि, भय रहित किया होय तथा त्रस-स्थावर जीवन पै दया-गाव राखे होंय तथा अनेक जीवनक राज, पंच, दुष्ट, सिंहादि जीव तिनके उपद्रव ते बचाय निर्भय किये होंय तथा मयवान जीवन के दया-भाव करि स्थिर भाव किये होय तथा भय रहित सुखी जीवन कू देख आपकं सुख मया होय इत्यादिक शुभ भावन के फल ते निःशङ्क चित्त का धारी शूरवीर होय हैं। २६ । बहुरि शिष्य पूछो। हे गुरुजी! यह जीव उदारचित्त सहित दातार कौन पुण्य तं होय? तब गुरु कही-हे मव्यात्मा! जिन जीवन नै पर-जीवनकौं सुपात्र दान देते देख, अनुमोदना करी होय तथा दीन दुःखितभुखित देस्त्र तिन जीवन की तानै दया करो होय तथा दान देने की बहुत अभिलाषा करी होय तथा धर्म निमित्त धन देते सुख पाया होय इत्यादिक शुभ भावतै उदार चित्त सहित दाता होय है ।२७। बहुरि फेरि शिष्य कहीहे यति पति ! यह जीव संम किस कर्म के उदय करि होय सो कहो। तब गुरु कही-जिन जीवन नै पर-भव । में कोई जीवकं दान देते मने किया होय । औरनकौं धन खर्चते देख आपने दुःख मान्या होय। पर-भव में नाना कष्ट पाय धन जोड़ि कर आप नहीं खाया नहीं औरनकू खुवाघा अरु और धन जोड़ने की अमिलाषा रही होय। अत्यन्त तीव्र तृष्णा के भावन में मरण किया होय तथा औरन के दान की निन्दा करी होय इत्यादिक पापमावन से सूमता सहित लोभी होय ।२८ फेरि शिष्य पूछी। यह जीव परि डन कौन कर्मत होय ? तब गुरु कहीहे वत्स! जिन जीवन में पर-भव में विद्या का दान दिया होय। औरसक पण्डित-विद्यावान जीव देख तिनकी । सेवा-चाकरी करी होय ! अज्ञानी जीवन की संगति तै जिसके अरुचि रही होय। जो धर्म शास्त्रन के वेत्ता हैं
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy