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हैं। जैसे - कोई जड़िया तौ कर्ता है और नाना प्रकार रतन जड़ि करि तयार किया जो मुकुट तथा हार, सो कर्म है और इनके करते भई जा मन-तन को प्रवृत्ति, सो क्रिया है। ऐसे अनेक पदार्धन पे लगावना । इस विधान सहित नय-प्रमाण कथन श्रुत ज्ञान तें पाईए हैं। तातें उपादेय है और भी श्रुत ज्ञान तैं पल्य-सागर का कथन कहिए है। तहां पल्य मेद तीन --- जघन्य, मध्यम अरु उत्कृष्ट । तहाँ जघन्य का स्वरूप कहिये है — ए जघन्य पल्य ऐसे हैं । जैसे—मानी- मनसा के प्रमाण बांधवे कूं रत्ती होय हैं। रत्ती तैं मासा, मासा तैं रुपया. रुपैया तैं सेर, सेर तैं मनादिक। जैसे रत्ती तैं मनेसा का प्रमाण किया, तैसे जघन्य पल्यतै सागर की उत्पत्ति हाय है । सोही कहिए है- एक बड़ा योजन का प्रमाण सहित गोल गड्ढा कीजिये तेता ही चौड़ा, तेता हो
डा (गहरा ) । मैं भोग भूमि को बकरी का तुरन्त का भया बच्चा ताके रोम का अग्र भाग का बारीक खण्ड लीजिये । तिन रोम खण्डन तैं वह कूप भरिए । दृढ़ कर कूट-कूटि धरतो बरोबर भरिये । ता पीछे सौ वर्ष
तब एक रोम काढिए फेरि सौ वर्ष गये एक रोम काढिए। ऐसे करते सर्व कूप खाली होय । ताकूं जेता काल लागे सो जघन्य व्यवहार पल्य कहिए है और जघन्य पल्य मैं जेता रोम आवे तितने कूप कूं उस हो कूप प्रमाण करि वैसे ही रोमों तैं भरिए दृढ़ करिए। असंख्यात वर्षे जांय तब एक-एक रोम काढ़तें एक कूप दो कूप रितावतें सर्व खाली होंय । सर्व कूपन के रोम खाली होय । ताकौं जेता काल लागै सो मध्य पल्य कहिए और इस मध्य पल्य के जेते रोम भए तेते ही कूप उस ही विस्तार प्रमाण बनाए। वैसे हो रोमन सबको दृढ़ भरिए । पोछें असंख्यात लाख कोटि वर्ष गए एक रोम काढ़िए। फेरि राता ही काल गए एक रोम काढिए । ऐसे करते-करते सर्व कूपन के रोम खाली होय । ताकों जेता काल लागे सो उत्कृष्ट पल्य है। याही उत्कृष्ट पल्य तैं देव नारकी भोग-भूमिन की उत्कृष्ट आयु-कर्म है और मध्यम पल्य तें द्वीप समुद्रन की गिनती होय है । सो पचीस कोड़ाकोड़ी मध्यम पल्य प्रमाश हैं और दश कोड़ाकोड़ी पल्य का एक सागर होय है। मध्य पल्य दश कोड़ाकोड़ी का मध्य सागर होय है। उत्कृष्ट दश कोड़ाकोड़ी पल्थ गये उत्कृष्ट सागर होय । ऐसे सामान्य करि पल्य का कथन किया। विशेष श्री त्रिलोकसारजी आदि ग्रन्थ हैं देखि लेना । ऐसे पल्य सागर का भाव श्रुत ज्ञान तें जानिए है । तातै श्रुत ज्ञान उपादेय है और भी श्रुत ज्ञान कृतनी विश्वास
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