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________________ कैसे खण्डि सके। जैसे कोई एक स्तम्भ कोटीभटानि कर रोप्या हुवा ताहि कोऊ हस्त अङ्ग रहित, रोगी, दीन, तुच्छबल का धारो, रंक पुरुष कैसे उपारि सके है। अक्षरनि का मिलाप तुच्छबुद्धि के जोग कर किया है। सो यामें कोऊ, चूक होगी । बुद्धि की सामान्यतातें जो अक्षर मिलाये हैं सोचूक होयगी भी तो एक उपाय विचारचा है सो प्रथमतो मैं भी याको शोधि अक्षरनि को ठोक करूँगा तौभी ग्रन्थ की प्रचुरतात चूक रहेगी तौ ताके निमित्त दूसरा यह उपाय है। जो विशेष बुद्धि, सम्यग्दृष्टि, निर्मल बुद्धि के धारक, जिनआझा रहस्यनि के जाननेहारे, वात्सल्य अङ्ग के धरनहारे, धर्मात्मा पुरुषतिन मैं ऐसी विनती करौं हों—जो है प्रभावना अनके धारी धर्मी जन हो, तुम सज्जन अङ्गी हो और पराये तुच्छगुण में अनुरागी हो, तात कवीश्वर तुमतें ऐसी विनती करै है जो इस ग्रन्थ के प्रारम्भ विषं कहीं मैं अर्थ तथा अक्षरमात्रा विर्षे बुद्धि की न्यूनताकरि मूला होऊँ तो तुम मेरे ऊपर वात्सल्य भाव जनाय, शुद्ध करि लेना। यह विनती जिनेन्द्रदेव की आज्ञा के अनुसारि धर्म श्रद्धान के करनहारे तत्त्वनि का स्वरूप यथावत जाननेहारे सम्यकरुचि के धारीनि तें करी है। और कोऊ छन्दनि की जोड़ वि तथा टीका के करने तिः कोई असरनि को ललिताई तथा सरलताई नहीं होय तौ छन्दकला के शानसम्पदा के धरनहारे भव्यात्मा सरलछन्द कर लेना। आप एता उपकार इस ग्रन्थवि मिलाय अपनी धर्मानुरागता प्रगट करेंगे। रीसी विनती सज्जननितें करी। सो रही चूक ऐसे शुद्ध होयगी। इहाँ कोई तरकी कहै जो आगे भी तौ जिनआझा प्रमाण ग्रन्थ बहुत थे सो तिनकाही अभ्यास किया होता तो भला था। तुमको ऐसे भारी ग्रन्थ गाथा छन्दनि सहित करने का अधिकारी काहे को होना था। तातै मानबुद्धि के जोगते तुमने इस ग्रन्थ को किया. सो तुम्हारा मनोरथ पूरा होता नाही भासे है। यह ग्रन्थ मारी है, ताविर्षे चूक भये उलटे निन्दा को पावोगे। तातें नहीं करना ही भला था ताको कहिये है। जो हे भाई! तैने कही जो तुमने मानके अर्थ ग्रन्थारम्भ किया, सो जिनआज्ञाप्रमाण सरधानीनकै शास्त्रप्रारम्भ में मानादिक प्रयोजन रूप कषाय का काही प्रकार नाहीं। यो कार्य तो सातिशयपुण्यबन्ध के निमित्त कीजिये है। मान का इसविष प्रयोजन नाहीं। तब तरकी ने कही.मान प्रयोजन नांही अरु पुण्य की चाह थी तो आगे अनेक शास्त्र थे तिनका स्वाध्याय करि बर्थ का धारन करते तौ महापुण्य का संचय नहीं होता क्या ? ताों कहिये है, जो हे माई। तैने कहा सो सत्य है, परन्तु
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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