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________________ श्री सु इ fic २५ पद बतावै। लौकिक व्यवहारवेत्ता न होय तो लोकविरुद्ध उपदेश देव तौ लोकनिन्दा वा शिष्य का बुरा होय । तातं उपदेशदाता लोकव्यवहारक वेत्ता चाहिये। ५। उपदेशदाता पराये प्रश्न सुनिवे में धीर-वीर होय, उत्तर का देनेवारा होय, जो कदाचित प्रश्न सुनि कोप करें, पराये प्रश्न का उत्तर देने का ज्ञान नहीं होय तौ श्रोता भयस्वाय प्रश्न नहीं कर सकें, सन्देह सहित अज्ञानी रहें। शुद्ध मान नहीं शेष ताते उपदेशदाता पराये प्रश्न को सुनि समताभाव सहित उत्तर देनेवाला विशेष नय जुगति सहित ज्ञानी चाहिये। ६ । और उपदेशदाता गुरु वीतरागी चाहिये जो रागी द्वेषी होय तो क्रोध मान माया लोभ के वशीभूत होय अशुद्ध उपदेश देवे। कोई ने अपनी सेवा चाकरी करो होय तो ताको विश्वास करि उपदेश देय। अर जो अपनी आज्ञा बाहिर होय तो तापै कोप करि कहै। आपको धन देय ताको भला भक्त कहै। ऐसे कोई तें राग कोई तें द्वेष भावकरि यथावत उपदेश नहीं देय तो शिष्यनि को धर्म का लाभ नहीं होय । तातें उपदेशदाता धर्म का धारी वीतरागी चाहिये । ७ उपदेशदाता गुरु, शिष्यनि का स्वर्ग मोक्ष होना वांछे ऐसा होय तो निर्दोष उपदेश देय शिष्यन का भला करें और उपदेश - दाता शिष्यनि को भली गति नहीं वांछे, तो खोटा उपदेशदेय श्रोता का बुरा करै । तातें उपदेशदाता गुरु शिष्यनि को भीगती का इच्छुक चाहिये। ८ । इत्यादि अनेक भले गुण सहित उपदेशदाता गुरु चाहिये। सोही भले श्रोतानि का गुरु है। सम्यकदृष्टिनि का गुरु है। ऐसे गुण सहित गुरु सबको मिलें। और रागी-द्वेषी गुरु कोई बैरी को भी मति मिलौ। ऐसा आशीर्वाद वचन जानना । इति श्री मुहष्टितरङ्गिणीग्रन्थमध्ये श्रोता वक्ता स्वरूप वर्णनो नाम द्वितीयः परिच्छेदः सम्पूर्णः ॥ २ ॥ ऐसे श्रोता वक्ता का शुभाशुभ स्वभाव कहा। सो इनमें तैं शुभ श्रोता वक्ता के गुरा जिनमें हॉय सो इस ग्रन्थ को पढ़ो, धारौं । इस ग्रन्थविषै अनेक रचनारूप कथन है । अरु था ग्रन्थ में अर्थ सो तो अनादिनिधन है काहू का किया नांही । अरु तत्त्वनि का स्वरूप जैसे केवलज्ञानी ने कहा तैसे हो है। जैसे अनन्ते जिनेन्द्र केवलज्ञानी आगे तैं तत्त्वनि का स्वरूप प्ररूपते आये, तैसे ही अर्थ यायें है। अर्थ तो इस ग्रन्थ में कवीश्वर की इच्छा प्रमाण नाहीं हैं, जारन का मिलाप कवीश्वर को बुद्धि अनुसार है। सो अर्थ तो काहू वादी का खड्या जाता नाहीं । काहे तैं, जो अर्थ है सो सर्वज्ञ केवली के वचन अनुसार है। सो ताकी यादी होनख़ानी २८ त रं 所 णी
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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