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________________ विकथा हैं और पर को दुखी करने की, पर के घर लटने की इन आदि औरन के आकुलताकारी कथा करना । सो पर-पीड़ा कथा है और जहां परस्पर युद्ध करने की लड़ने की कथा करनी सो कलह विकथा है। परिग्रह बधावै ( बढ़ावै ) की वार्ता परस्पर करनी सो परिग्रह कथा है और परस्पर खेती निपजने की कथा है। जो १९९ अब के मेघ मला हैं धरती हमनें बहुत जोती है। वान छोड़ दई धरती थोरी उठाई इत्यादि खेती को कथा सो कृष्यारम्भ विकथा है। जहां नाना प्रकार राग, नृत्य, गीतादिक की कथा सो सङ्गीत विकथा है। ऐसे ए पच्चीस विकथा रूप वचन हैं। सो सर्व पापकारो तजवे योग्य जानना। ऐसे शुभाशुभ वचन मैं हेय-ज्ञेय-उपादेय कया। इति वचन मैं ज्ञेय-हेय-उपादेय कथन। आगे द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव का स्वरूप लिखिये है गाथा-दब्बो खेतो कालय, भायो पत्तादि भेय जिण उत्तं । गेयोपादेय हेओ सम्मोदिट्टी सोवि णादयो ॥ ३८ ॥ अर्थ-द्रव्य, क्षेत्र, काल, माव-ए चारि भेद जिन दव ने कहे हैं । तिनमैं है य-वेष-उपादेय करे, सौ आत्मा सम्यग्दृष्टि जानना। भावार्थ--द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव करि वस्तुन का धारत होय है। तहां प्रथम हो दृष्य विर्षे ज्ञेय-हेय-उपादेय कहिए है। समुच्चय जीव का जानना, सो ज्ञेय है। ताही ज्ञेय के दीय भेद हैं। एक हेय एक उपादेय । सो तामैं जाकू पर-द्रव्य जानिये सो हैय है। जैसे-युद्गल, धर्म-अधर्म, आकाश, काल और आप आत्म तत्व भेद ज्ञान का विचारनहारा अनुभवी हेय-ज्ञेय-उपादेय का करनहारा आत्म द्रग्ध है। ता एक जात्मा के सिवाय अनन्ते जीव द्रव्य और ऐसे ही षट् ही द्रव्य हैं। सो पर-ज्ञेय जानि हेय हैं, तजवे योग्य हैं । र सर्व अपने आत्म स्वभाव से मित्र हैं तातें तजवे योग्य हैं। इनके गुण-अर्याय भी जड़ हैं, अज्ञान हैं, मूर्ति हैं, अमुर्ति हैं, तातें हेय हैं। इहा प्रश्न-जो मूर्ति तौ तजवे योग्य हैं यह हमने भो जानो। परन्तु अमूर्ति चेतना गुण सहित इनक हेय क्यों कह्या ? ताका समाधान---भो भव्य ! जो तेरे मन मैं पुद्गल द्रव्य पर है रोसी आई है तो ये भी आजाय है। तू चित्त देय सुनि। देखि पुद्गल तौ अमूर्तिक है। सो पर है हो, सो से जानी ही है। धर्म-अधर्मादि च्यारि द्रव्य अमूर्तिक तौ हैं। परन्तु चेतना रहित जड़ हैं। तात तजवे योग्य हैं तातें हेय हैं और आप स्वभाव ते अन्य जीवन के प्रदेश सत्व गुण पर्याय भित्र हैं। उनके किये राग-द्वेष भाव का फल आपकौं नहीं लागै। अपने किये राम-द्वेष का फल उन पर-जीवन कू नहों लागे । अन्य कुं सुख भर आपकू सुख नाहीं। परकुं दुख भए भापकू
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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