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________________ श्रो सु 包 ४३९ रोमाए कहिये, तौ हिंसा पुण्यका फल देय । भावार्थ-जीव बिना, पाँच द्रव्य हैं । पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश । ये पांच द्रव्य अनादि तैं जड़त्व भाव को लिये हैं। इनके गुण भी जड़ हैं, और पर्याय भी जड़ है। खी ये अजीब द्रव्यनम ज्ञानका अभाव है सो इनमें ज्ञान होय, तौ हिंसामै धर्म-फल होय । और चेतन, गुण सहित देखने-जाननेहारा, दर्शन-ज्ञानका समूह, सो थाका ज्ञान कर्म योगर्तें घटे तो अक्षर के अनंतवें भाग रहे, परन्तु ज्ञानका अभाव कबहूं नहीं होय । अरु कदाचित जीव ज्ञान रहित होय, तो हिंसा धर्म फल होय । तथा अपथका कारण कलह है। सो कलह-युद्ध किये यश होय, तौ हिंसाके किये पुण्यका फल होय । ऐसे ऊपर कहे कार्य हों, तो हिंसा में धर्मका फल होय । तातें धर्म इच्छुक ! धर्मके निमित्त, दया धर्म का अध्ययन करहु । और भी अब करुणा का स्वरूप कहें हैं, और दयाका फल कहिये हैं- गाया --- दीरघ घिति भ्रू जसयों, गद रह तण भोय इच्छ सहु होई । मुर, चक्की सुह सह लय, ये करुणा फल होय णेमाए ॥१३०॥ अर्थ - दीरघ थिति कहिये, बड़ी आयु । भू जसयो कहिये, धरतीपें यज्ञ । गढ़ रह तण कहिये, रोग रहित शरीर । भोय इच्छ सहु होईं कहिये, मनवांच्छित भोग। सुर चक्की कहिये, देव चक्रवर्ती। सुह सह लय कहिये, इनके सुख सहज ही होय । ये करुणा फल होय रोमाए कहिये, ये दया का फल निश्चय से जानना । भावार्थ - इस जीव को भव-भव रक्षा करनहारी, दया है। सो दया भाव जिनके सदैव रहै है, तिनको आयु तो सागरों पर्यंत बड़ी हो है । और जे दया भाव रहित होय है, ते जीव अल्पायु पाय मरण करें हैं। और दयाके फलतें जगतमें सहज ही यश होय है। और जो जीव पर-भवमें पराया यश नहीं देख सक्या। तथा जिसने महा निर्दय भाव कर पराया यज्ञ हत्या है। ते जीव, दया रहित भावनके फल हैं, यातें प्रगट भया जी यश, सो ऐसा यश चाहैं, तो लाखों दाम खर्चे भी वश मिलें नाहीं । यशके निमित्त प्राण देय मरैं तौ भी दया बिन यश नहीं मिले दोन होय बोलै, सब नम्रीभूत होय मस्तक नमावै, तो भी यज्ञ नहीं मिलें। काहे तें, जो पर भव विषै पराया मान राखा होय, प्रण राखे होंय, इत्यादिक मन-वचन-काय कर सर्व कौं साती करी होय. ते जीव सहज ही जगत में यश पावें । तातें यश है सो दया भावका फल है। और निरोग शरीर पावना, आयु पर्यन्त सुखी रहना. सो दया भाव का फल है और मनवांच्छित सुख का मिलना, सो दया भाव का फल है। जो मन में कल्पना करी 1 ४३९ स रं वि णी
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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