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________________ श्री सु € डि २९६ रूप धरि औरन पै द्रव्य की आज्ञा करि तिनका धन लेय आय सञ्चय करें। नाना प्रकार बड़े विधानादि पूजा करनी । करने हारे पै धन लेना। ऐसा ही उपदेश देना जातें भोले जीवन के घर का धन अपने घर में आवें और लोभ के पोषक धनवान का आदर करना। अरु निर्धन धर्मात्मा पुरुष का निरादर । इत्यादिक लोभ के अनेक भेद हैं। सो केतेक जीव ऐसे हैं जो लोभ के निमित धर्म का सेवन करें हैं और केतेक धर्मात्मा सम्यग्दृष्टि जगत् उदासी परमार्थ जो मोक्ष सो ऐसे परम अर्थ के निमित्त धर्म सेवन करें हैं। सो अनेक नय विचार समता वधावना धर्मात्मा जीवन करना हितकर इत्यादि कार्य करें हैं। यहां प्रश्न – जो यहां कह्या कि वांच्छारहित तप करें। सो वांच्छारहित तप कैसे होय ? तप करें हैं सो सुख की वांच्छाकूं करें हैं। वच्छा बिना तो फलरहित तप भया । याको महिना कहा भगी ? ताका समाधान – जो धर्मात्मा दृढ सम्यत्तव के धारी हैं ते इन्द्रियजनित सुख के निमित्त तब नाहीं करें हैं। मोक्षा मिलान के तप है सो मोझ निमित्त हैं सो स्वर्गादिक इन्द्रियजनित सुख तो सहज हो होय है। जो तप मोक्ष करें स्वर्ग तो बिना वांच्छा के होय। जैसे- खेती का करनहारा धरती में अन्न बोवे है सी दाका अभिप्राय ऐसा नाहीं जो मेरे खेत में घास होऊ। वाका मन तो अन्न वांछे है। परन्तु जाने अन्न बोया ताके घास तो बिना वांच्छा के होय तातें जाने तपरूपो अन्न का बीज धर्म-धरा मैं बीया है। सो मोक्ष की अभिलाषा के निमित्त है। सो स्वर्गादि घास की नांई सहज हो होय। यहां फेरि प्रश्नजो मोत की वांच्छा तैं तप किया सो भी वांछा भई । निर्वाच्छापना तो नहीं था। यामें भी वांच्छामई। ताका समाधान - जसे कोई पुरुष धन कुमाये । सो एक पुरुष तो ऐसा विचार करें। जो धन बहुत कुमाइये तो व्यह कर्जे घर बड़े बेटा-बेटी होय गृहस्थपना भला लागे । बिना स्त्री घर बढ़ता नाहीं। ऐसा जानि धन कुमावे है अरु कोई पुरुष धनकुमावे है सो ऐसा विचार है। जो बहुत सा धन होय तो वेश्याकूं दे वांच्छित भोग भोगये । जो व्याह कर चाह है तो गृहस्थपने का घर बांध सुखी भया चाहे है। सो यो विचार तो दोष रहित है। क्यों ? जो गृहस्थी ताका ही नाम है। जो घर बांधि स्त्री परणि बेटी-बेटा आदि कुटुम्ब तैं सदैव सुखी होय और दूसरा वेश्यावारे का विचार अज्ञानता सहित है। जो धन का धन खोवना, अरु वैश्या के किंचित् सुख भोग पाप कमाना । सोए जीव भोला है। तैसे जो जीव तर करि मोक्ष चाहे है। सो तो ध्रुव (नित्य) सुका का ' २९६ त i गि पी
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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