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________________ | है? परन्तु ऐसे जन्ध समान जीव का पुरुषार्थ अरु लगन सराहिये, जो ऐसे विकटपंथनि मैं गमन करे है। सो थाका धर्मानुराग सराहिये। जो दीखता तो थौरा अरु ऐसे विषम मार्गनि में गमन करितीर्थ-यात्रा का उद्यम करें है। सौ या धर्मानुराग विशेष है। ऐसा जानि वाका हस्तगहि वाकूमार्ग लगाये बाकी वांछा पूर्ण करे हैं। तैसे ही धर्मार्थी पण्डित तौ ऐसा विचार जो नवीन ग्रन्थनि के करते बड़े-बड़े पंडित भी भूलें हैं सो ही ज्ञानी मलै तो दोष क्या ? परन्तु याकी बुद्धि सराहिये है। सो ऐसा जानि धर्मार्थो पंडित नहीं हँसेंगे। अर तु मानादिक को कह सो धर्म अभिलाषी वक्ता के मानादिक प्रयोजन नाही। परन्तु तेरी ही बुद्धि विर्षे कोई विपरीत विकार उपज्या है तात ऐसा भासे है। जैसे कोई कनक का खानेहारा पुरुष आकाश विष नाना प्रकार रतनमयी रचनासहित एक नगर देखि हर्षायमान होता मया, हँसता भथा। अरु कबहूँ नाना प्रकार भयानीक जीवनि के सिंह, हस्ती, सर्प आदि के विकराल आकार देखि महामयानीक होय रुदन करे है। सो आकाश तौ महानिर्मल निर्दोष है आकाशविष तौ रतनमधी नगर भी नाहीं और सिंहादिक भयानक जीव भी नांहों। परन्तु धतुरे के अमल में याकी दृष्टि मैं विपरीत भासै है तैसेही ग्रन्थ के कर्ता आचार्यादिक भले कीश्वरनि के मान का भाव नाही! कैसे हैं भले कवीश्वर, जे धर्म के धारी परम्परातै जिनभाषित धर्म की प्रवृत्ति वांछनेहारे समतारसस्वादी तिनको तौ सत्कार पूजा मान बड़ाई की इच्छा नाहीं। परन्तु याही ने मिथ्यात्वमई धतूरे का ग्रहण किया है। ताते याको ग्रन्थारम्भ में भले कवीश्वरनि के मान भास है। जैसे काहू के नेत्रनि विर्षे नोलिया रोग है। सो ता पुरुषको सब सफेद, नीला मासै है । सो सुफेद वस्तु तो अपने स्वभावरूप स्वैत है ही परन्तु या पुरुष के नेत्रनि विष नोलिया रोग है सो श्वेतवस्तु नीली भास है। तैसे ही ग्रन्थकर्ता कवीश्वरनिकै तो भान बड़ाई की इच्छा नाहों, परन्त थाही अल्पबुद्धि भोरे जीव का ज्ञान विपरीत रूप भया है। तब तरको ने कहो, यामें तुम्हारे मानबड़ाई नाहीं है तौ ग्रन्थनमैं अपने नाम का भोग काहेको धरोहो? ताका समाधान हे भाई! अपने नाम का भोग मले कवीश्वर हैं सो नाम की इच्छा से नाही धरे हैं। नाम का भोग तो अपनी धर्मबुद्धि ते, पाप ते भय खाय करि धर हैं। ऐसे ही अनादि ते भले कवीश्वरनि की परिपाटी चली आई है सो ग्रन्थकर्ता अपना नाम मोगा अपने किये ग्रन्थ मैं नाहों धरै तौ दोष लागै। कवीश्वरों का चोर होय। आचार्यनि की परम्परा का लोप होय।
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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