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है। २ । जहाँ प्रतिमाजी के बहुत हो नजदीक सन्मुख होय, सामायिक करै, सो प्रतिष्ठा दोष है।३। जहां दोऊ हाथ तें जघा दाबि के नमस्कार करें, सो प्रतियोड़ित दोष है। ४ । सामायिक कर, सो पाठ विसर्जन होय जाय तथा शुद्ध ही पढ़े, तो चित्त संशय रूप होय, कि यह पाठ पढ़या अक नाही? पढ़या तौ मौकों यादि नाहों। ऐसे | मन चंचल रहै अरु कायर्क, मूले की नाई मुलाया करै, सो दोलायित अतिचार है।५। हाथ की अंगुली कू
अंकुशाकार करि, मस्तक में लगाय नमस्कार करे, सोअंकुश दोष है।६। सामायिक करते कटिहाथ लगाय कायकों संकोच, कछुवा के आकार करै, सो कच्छप दोष है।७। सामायिक करते कटिकौं हिलावै, मधली की 'नाई चंचल राखें, सो मोक्त दोष है। पालो सामायिक करते, मया हो सूर्य का घाम ताके सहनेक असमर्थ होय, परिणति संक्लेश रूप करे, सो मन दुष्ट नाम अतिचार है।। सामायिक करते कायकों हाथ ते दाबि, दृढ़ बन्धन-सा करै, सो बन्धन अतिचार है।३०। सामायिक करते कोई देव, मनुष्य, सिंह, सादि जीवन के भय सहित कायोत्सर्ग करें, सो भय दोष है। १२ । सामायिक करते, अपने तौ स्थिरता नाही, अस धर्म-फल की इच्छा भो नाही; परन्तु गुरु के भय से तथा संघ के भय से, सामायिक क्रिया करै, सो परमार्थ रहित करै, सो विभ्य दोष है । १२ । तहां च्यारि प्रकार संघ के खुशो करनेकौं तथा अपनी महिमा पर के मुख ते सुनिवेकौं, शोभा के हेतु सामायिक करै, सी गौरव-वृद्धि दोष है । २३ । अपना माहात्म्य करायवेकी, इन्द्र के सुखन की इच्छो सहित, मान-बड़ाई के हेतु सामायिक करै, सो गौरव दोष है ।१४। जो गुरु के पास सामायिक करूंगा, तो कोई मेरा प्रमाद देख, औगुन काढ़ेंगे, रोसा जानि, एकान्त मैं गुरु ते छिपकर सामायिक कर, सोन्यति दोष है। १५। जहां सामायिक करते गुरु की आज्ञा रहित, गुरु ते प्रतिकूल होय, अपनी इच्छा रूप, गुरु के कहें बिना ही, गुरु की आज्ञा बिना ही, सामायिक कर, सो प्रतिनीति दोष है। १६ । सामायिक करते. अन्य जीवन ते द्वेष-भाव राखै तथा युद्ध करने का तथा कलह करने का अभिप्राय रासै, सो प्रदुष्ट दोष है 1१७] जहां गुरु करि ताड़ित जो गुरु नै अविनयी जानि तथा प्रमादी जानि, धर्म-भावना रहित जानि, संघ ते काढ़ि दिया होय । सो गुरु
के भय तें तथा संघ के भय तें, सामायिक करै, सो ताड़ित दोष है । १८। सामायिक करते, मौन तजि बोल उठे, || सो शब्द दोष है। १६ । तहां सामायिक करते, गुरु की अविनय रूप भाव हो जाय गुरु के मान-खण्डन रूप