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आदाय शाहि मम जोई कहिये, लोक के आत्मा मोक्रौं कोई भी नहीं देखे हैं । भावार्थ-जे धर्मात्मा समता-रस के पोवनहारे सो दारिद्रय के उदयतें ऐसा विचार करि खेद मिटाय सुखी होय हैं। भो दारिद्रय ! तूने बड़ा उपकार किया। जो तेरे प्रसादतै मैं सिद्ध समानि अमूर्ति भया संसार में रहों हो। सो मैं तो सर्व जगत्-जीवन को शुभाशुभ चरित्र करते निरखेद देखू हौं। मौकौं जगत् के जाव कोऊ नहीं देखें हैं। जैसे—अमूर्ति सिद्ध तो सर्व होममीवरको देश र लांक केजी सिखन कोऊ ही नहीं देखें । सो रोसी दशा सिद्ध समानि हमारी भी भई। सो ये तेरा उपकार है। अब मैं सन्तोष के सहाय तें, निराकुल-सुखी भया तिष्ठ है। ऐसे दारिद्रय को आशीष वचन कहैं हैं, सो जानना । ६३।।
आगे ऐसा कहैं हैं जो धर्म सेवतें जीवन की अभिलाषा चार प्रकार हैगापा–धम्मो चतुपयारो चातुरता लोय रञ्ज लोभाये । पम्मग्यो सिम मग्गो सेसा संसार सायणो मगणो ॥ ६४ ॥
अर्थ-धम्मो चतुपयारो कहिये, धर्म सेवन च्यार प्रकार का है। चातुरता कहिये, चतुरताई कुं। लोय रक्ष कहिये, लोक के राजी करवे कौं। लोभाए कहिये, लोभकं । पम्मथ्यो सिवमग्गो कहिये, परन्तु परमार्थिक धर्म मोक्ष मार्ग है। सैसा संसार सायणो मगणो कहिये, बाकी जो धर्म हैं सो संसार सागर में डुबोनेवाले हैं। भावार्थ-धर्म सेवन जगत जीव करें हैं तिनके अभिप्राय च्यारि प्रकार जुदै-जुदे हैं। कोई जीव तौ चतुराई के अभिलाषी हैं। जो लोक हमको ऐसा कहैं कि ये काव्य छन्द गाथा पाठ पद विनती जाने हैं। भला चतुर है। यह जैसी सभा में जाय तैसी ही बात कर जाने है। धर्म को भी भली-भलो बात, कथा, चर्चा, पद, विनतो, पाठ जाने है। हमकं लोक धर्मों कहें, चतुर विवेकी कहें रोसी अभिलाषा सहित धर्म का साधन करना । सो चतुरता के हेतु धर्म का सेवन कर है। इनकौं मोक्ष वांच्छा नाहीं और केतक जीव पर के रायवे कौ धर्मात्मा कहायवे कृधर्म का साधन करें हैं । जैसैं और जीव राजी होय तैसे करें । सो पर के रायवेकौं भले स्वर तैं मधुर कण्ठ ते काव्य, गाथा, कवित्त, पद, विनति, महाराग धरि तालबन्ध गाय औरकों खुसी करवेकौं नाना गान पाठादि करें। जो ये सर्व सभाजन राजी होय हमको भले कहैं। ऐसा जीव लोक रायवे का अभिलाषी है। सो ऐसा जीव घेते तप, संयम, ध्यान.पठन कर है सो सर्व लोकन के रखायवेक कर है। केतक जीवन का ऐसा अभिप्राय
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