SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कार्य ती व्रतकौं दोष लाग। २। और पेट भर भोजन करै, गरिष्ठ भोजन करें, वेश्यादिक के गोतनाद नृत्य सुनै शीलवान पुरुष स्त्री का निमित्त करै। शीलवान स्त्री पुरुष का निमित्त मिलावै, गृहस्थ अवस्था के इन्द्रिय जनित भोग सुखरूप जानि तिनकौं विचार, आपने तथा स्त्री के अङ्गोपाङ्ग निरन राग-द्वेष करे स्त्रीन के आव आदर शुश्रूषा सत्कार बहुत करता सो शील को दोष है पूरख भोगे जो सख इन्द्रिय जनित तिनको बार-बार विचारे स्त्री के मिलापकों बार-बार आरति करना चाहना वीर रज के खेरवे का जैसे-तैसे उपाय करना ये दश अतीचार शील के सो शील-धर्म को मलिन करे हैं। तातें ब्रह्मचर्य व्रत का धारी र दश दोष नहीं लगाय के अपना ब्रह्मचर्य व्रत निर्दोष राखे हैं। याका नाम ब्रह्मचर्य-धर्म है। इति दश धर्म। तप बारह इनका स्वरूप जागे कहेंगे। आवश्यक षट् और गुप्ति तीन इनका स्वरूप आगे कह आये। पंचाचार का स्वरूप आचार सारजी से जानना ऐसे धर्म दश. तप बारह, आवश्यक षट पंचाचार ५, गुनि तीन इन छत्तीस गुण सहित प्राचार्य मुनि के भेद हैं। इति श्री सुदृष्टितरंगिणी नाम ग्रन्थ मध्ये अष्टाविशति पति का धर्म तेरह प्रकार चारिच रसत्रय वाधीश परीषह कथन दशभेद सत्य अतोचार शील के दश छत्तीस गुण आचार्य वर्णनो नाम पर्व पूर्णम् ॥ ९ ॥ आगे पच्चीस गुण सहित उपाध्याय का स्वरूप कहिये है। गाथा-अन एकादह जुतो चउदह पुर्वाय जाण संजुत्तो सो जबझाओ अप्पा, गुणनीसाय पण सहिलो ॥ ३०॥ अर्थ-यारह अङ्ग चौदहपूर्व उपाध्यायजी के ए पच्चीस गुण हैं। सो ही संक्षेप मात्र कहिये हैं। आचारांग, सूत्रांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञाप्तयांग, ज्ञातृकथांग, उपसकाध्ययनांग, अन्तकृतदशांग, अनुत्तरोपपाददशांग, प्रश्रव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग—ए ग्यारह अङ्ग है। अब इनका अर्थ सी जिस-जिस अङ्ग में जो कथन है ताकी मुख्यता लेयक सामान्य भाव इहाँ कहिये हैं। तहां प्रथम ही गणधर देव ने प्रश्न किये। जो हे प्रभो! कैसे खाईए? कैसे बोलिये ? कैसे चालिये ? कैसे बैठिये इत्यादिक क्रिया तौ कीजै अरु पाप नहीं लागे सो मार्ग बताइये जिस करि जोवन का कल्याण होय। ऐसा प्रश्न होतें जिन देव ऐसा उत्तर करते भए । जो यतनत खाईय। यतनत चालिए, यतनतें बोलिय, यतनतें बेठिये। इत्यादिक जो क्रिया करिए सो यत्नतें करिये तो पाप नहीं लागे। यति के प्राचार का कथन जहां चले सो आचारांग नाम अंग है। इसके अठारह हजार पद हैं।।
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy