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________________ बी N आय यहाँ त विहार करौ तौ मला है। नहीं तो उपसर्ग करेगा। मैं महापापी ताके निमित्त पाय उपद्रव हो है। इत्यादिक सेठ कू महाभयावन्त भया, अपनी आलोचना • लिए वचन बोलता देख, मुनीश्वर करुणा करि, धर्म । ५९८ को प्रभावना करने कू बोलते भए । भो वत्स! भो भार्य! भय मत करौ। राजा दर्शन कू आवै, तो आवने देवो। मेरी गुरु के बाद न नुनि में हर्ष पाशा मधा। जो जगत् का नाथ, मेरे गुरु ने, मोहि अभयदान दिया। | सो अब भय नाहों। तब भी सेठ ने विचारी, जो गुरु के तन मैं तो, यह प्रत्यक्ष रोग है अरु गुरु ने अभयदान दिया। सो यह वचन गुरु का, आश्चर्य उपजाव है तथा सेठ विचार है। यह वीतराग गुरु की, अखण्ड आज्ञा है । सो मेरु चलायमान होय तो होथ, परन्तु गुरु का वचन अन्यथा नाही होय । ताते. गुरु कही-भय मति करौ, सो अब मोहि, भय नाहीं। ऐसा दृढ़ निश्चय करि, सेठ भी अपने मन्दिर गया । तब यतीचर ने भगवान की स्तुति करी। चौबीस काव्य में, स्तोत्र किया । सो मन-वचन-काय एकत्व शुभ रूप करि, जिनदेव के गुणानुवाद गाये। सो भक्ति के भाव तैं. अन्त काव्य के पूरण होते, यति के तन का सर्व रोग, नाश भया। सूर्य के तेज समान, तन को दीग्निप्रगट मई। सो यति ने बांयें हाथ की छोटी अंगुली की एक नौक, राजा के प्रतीति के अर्थ, रोग सहित रहने दई। बाकी सर्व-तन, कञ्चन वर्ण भधा। जब प्रभात, राजा दर्शन निमित, चतुरंग सेना मिलाय, महादल हित अाया अरु यति के तन का रोग, सब नगर जान था सो इस कौतुक के सनि, सब नगर के लोग भी, कौतुक-हेतु आये । सो वन में मनुष्य का समूह फैल गया। राजा तहां आया, जहाँ यतीश्वर विराजें। सो बाहन से उतरि, मुनि के दर्शन कूआगे गया। सो शरद ऋतु को पूर्णमासी के चन्द्रमा समान निर्मल कान्ति धारे, समता समुद्र, वीतरागी योगीश्वरकू देस, मुनि के तन की दीप्ति को देख. विस्मयकं प्राप्त भया । दूर ते नमस्कार किया। राजा ने मुनि की अनेक स्तुति करी अरु जानें, राजा पै चुगली करी थी. तायै राजा कोय करि. ताकौ दण्ड देवे का विचार करता मया। तब यतीन्द्र ने, राजा के मन का अभिप्राय जानि, आज्ञा करी। मो नृपेन्द्र ! कोप मति करौं । वान असत्य नहीं कही थी। हमारा तन कुष्ट-रोग सहित था। परन्तु या सैठ ने, मेरे रोग का नाम, अवि| नय-मय ते नहीं लिया। सो याके भय निवारण कं, प्रभु की स्तुति के प्रसाद है, शरीर शुद्ध भया। बाकी यह शरीर, महाअशुचि, सा धातु का पिण्ड ग्लानि का स्थान है। याके विर्षे, यति निष्प्रिय है। परन्तु सेठ के
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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