SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 512
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४ । औरन की जोति, अपना नाथ-राजा, ताकौ बचाय लाया। पीछे राजाकों सुखी कर, नमस्कार किया। विनित । करी कि मी नाथ ! मैं आपका सेवक हों। ऐसे ही अपने नाथ वीतरागी जो गुरु, तन से निष्प्रिय, शत्रुमित्रमें समभावरी, ऐसे गुरुनाथ की पापोजन, कोई प्रबल द्वेष-भावतें उपसर्ग करें। ता समय महाघोर उपसर्ग मैं कोई महाधर्मात्मा, यतिनाथ का सेवक आय, अपने बल त पापोजनकौं दण्ड देय, मुनीश्वर का उपसर्ग टालि, पीछे जाय यतीश्वरको नमस्कार करि, स्तुति करि, विनति करै, सो यह मुनि कौं अभयदान भया। ऐसे कहने में कछु दोष नाहीं। तातै मुनि को चारों ही दान सम्भवै। यामैं कछु दोष नाही। एता विशेष है कि जो दीनकों अभयदान देने में तौ करुणा-भाव होय है। मुनि की जमयदान देने में भक्ति-भाव होय है। इन च्यारि दानन में अभयदान उत्कृष्ट है। अरु याका फल भी औरन तै उत्कृष्ट है। जैसे-राजा की और अनेक सेवा करने से, राजाको मरते राखें, सो उत्कृष्ट सेवा है। मरण समय सहाय करि, वैरी से बचाय करि राखे, सो उत्कृष्ट सेवक है। यों हो उत्कृष्ट सेवा का उत्कृष्ट फल है तैसे ही मुनिको तीन दान तें, उपसर्ग से बचायने का महान् पुण्य है। ताते च्या दान यति कौ कहे हैं। इस नय प्रमाण करि समझ लेना कोई नय, शास्त्र बड़ा दान है, सो शास्त्रदान तैं, जिनवाणो का अभ्यास करि, केवलज्ञान पावै हैं। इस नय ते शास्त्र-दान बड़ा है। कोई नयतें अन्न-दान बड़ा है। जहां रोग को बधवारो भये, यति-श्रावकनको ध्यान में स्थिरता नाहीं होय । रोग गये ध्यानध्येय की प्राप्ति होय है। इस नय ते औषधि-दान बड़ा है और जो क्षुधा दिन-प्रति खेद करै, तब शिथिल होय । भोजन बिना तन क्षोण होय । धर्म-ध्यान नाही सधै । तातै तन को स्थिरता तें, भाव को स्थिरता होय है। भाव की स्थिरता ते, कर्म नाशि. केवली होय, सिद्ध पद पाय है। इस नय ते आहार-दान बड़ा है। ऐसे अपनी-अपनी जगह, नय-प्रमाण सर्व ही उत्कृष्ट हैं। यह आत्मा अन्न-दान तै, सदैव सुखी होय है। अनेक जीवन का पोषणहारा होय है। ओषधि-दान तै, शरीर रोग रहित होय । औरन के रोग नाशने की कला का धारी होय । शास्त्रदान ते अंग-पूर्व आदि श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान की प्राप्ति होय। आप भवान्तर में औरन कूशानदाता होय ! अभय-दानत भवान्तर में कोटो-भटादि महायोद्धा होध है । दयावान होय तथा जनुक्रम तँ, अनन्तकाल सुख का स्थान, स्थिरोभूत, लोकाश्विर पै, सिद्ध होय। ऐसा जानि च्यारि ही दान देना योग्य है। अरु यहाँ मुख्यता Mara
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy