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________________ सुदृष्टि रंगिणी..:.. . । मंगलाचरण मनमांहि भक्ति अयान नमिहौं, देव अरिहंत को सही। फिर सिद्ध पूजो अE गुणमय, सूर गुण छत्तीस ही। अंग पूर्वधारी अजों उपाध्याय साधु गुण अठबीस बी। यह पंच गुरु प्रन्य मावि सत् ए मंगदा जगईशा बी॥१॥ वृषभसेन बार्षिक गणराय, गौतम स्वामी लौं थुतिलाम । और नम अन्य कवि सूर, जिन कीने मिथ्या-मगनूर ॥२॥ सुमति करण, कुमती हरण, भरन जान भण्डार। क्या मूर्ति सर्वशकों, नमों सूर भवतार ॥ ३ ॥ देव धर्म गुरु या विधि यकी मानिये, काय मन वचन तें भक्ति उर बानिये। और तीरथ नमों सिद्ध तहाँ ते भये, नो जिन जिम्बन किये कृत्तिम थए ॥ ४ ॥ ऐसे इष्ट देवनि जो पूजे, तातं अगले मारग मूजे।। इन प्रसाव अब बुद्ध सवाई, अन्य रच शुभ शुभ फलदाई ॥५॥ में तो इष्ट देवका दासा, होक भक्ति तितने तन श्वासा । सब जीवनः क्षमा कराई, निज सम जानि दया उर बाई ॥ ६॥ ॥ग्रन्थ महिमा ॥ ए अन्य सागर अर्थ जल फरि पूरित सहि । बन्नु मष्टान्त मुक्ति नय तरंग उठे सही ।। ता मध्य जे अधिकार दीप सम जानिये । तत्व रतन करि भरे सकल सुख बानिये ।। सुख खानि तहां समष्टि जावे बैठ जिन वचमावजी । ते चह भुज बुद्धि बल पहुंचे नही तिनको दाब पी। ताते षु सरधा पोत गहि ष्टि सुरति सागर कौं तिरौ । नहिं कोम और उपाय भदि श्रति सौख यह हिरदै धरी ॥७॥ भुरमण समुद्र सो, यह श्रुति उदधि गंभीर । पार कौन जिन बिन लहै, बरणी बुष सम वीर ॥८॥
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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