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द्रव्य नव पदार्थ पंचास्तिकाय इनके गुरु पर्यायन का यथावत् श्रद्धान का अनुभव सो ही सांचो दृष्टि यही सम्यक कहिय। यह चारित्रमोह के उदय संयम नहीं धर सकै सो असंयमी है। तातें अव्रत सम्यग्दृष्टि कहा है। तहों ।। 'म्रस हिंसा का त्याग सो तो व्रत है। पंच स्थावरन में व्रत करना तो है परन्तु सर्व प्रकार हिंसा बचती नाही निमित्त पाय स्थावर हिंसा होय है तात स्थावर हिंसा का त्याग नाहीं। मन और इन्द्रिय वश रहती नाहीं । तात ग्यारह बव्रत हैं तातें इस पंचम गुणस्थान में व्रत अव्रत दोऊ है। तात याका नाम प्रतावत है तथा अल्प व्रत के योगत देशव्रत भी नाम है। तहां प्रत्यास्थान के प्रभावत सकल संयम भया ताके सो एकाग्र ध्यान का अवलम्बन छुटि किंचिद् प्रमाद के वश करि पाहार विहार उपदेशादि रूप क्रिया वचन इत्यादिक रूप प्रवृत्ति होना सो प्रमत्त छठा गुणस्थान है। तहां विहार उपदेशादि क्रिया रहित ध्यानावलम्बी योगीश्वर ताको प्रमादरहित अप्रमत्त गुरगधारी कहिए। तहाँ कारण होने के निमित्त पाय परिणामन को महा विशुद्ध ताके योगते समय-समय अनन्त गुणी विशुद्धता लिये समय-समय असंख्यात गुखी निर्जरा कर्मन की होय सो अपूर्वकरण अष्टम गुणस्थान कहिये। याहोर्ते अधिक विशुद्धता लिये हास्यादिक नो कषाय के रस रहित अपने गुरु योग्य काल एक रूप वर्तना अनेक जीवन को एक-सी विशुद्धता होनी और रूप नाहीं होनी सौ अनिवृत्तकरण है। अल्प मोह के अंशनि का सदुभाव और सकल मोह का अभाव सहित निराकुल सुख का स्थान, सो सूक्ष्मसाम्पराय दशमी गुणस्थान है । सकल मोह के उपशम भावतें आत्मा के प्रदेश बडोल-निराकुल सुखमयो स्थाच्यात चारित्र का स्थान, उपशान्त मोह नाम ग्यारहमा गुणस्थान है। सकल मोह के क्षय भावतें प्रगट होय महासुख स्थान, केवलज्ञान का निकटवर्ती सो क्षीण-मोह बारहमा गुरास्थान है। च्यारि शतिया कर्मरहित अनन्त चतुष्टय सहित केवलज्ञानी सकल सिद्ध भगवान, रागद्वेष कषायरहित मन-वचन-काय योग सहित सो सयोग गुणस्थान है। इहां भव्य जीवन के सम्बोधन निमित्त वचनप्राण की शक्ति सहित, वचनयोग के निमित्त पाय वचन का उपदेशरूप खिरना, ताकौ सुनि भव्य ताकौं शिव सुख मार्ग बतावनेक दिव्य-ध्वनि करि उपदेश करते, काय प्रारण के जोरतें | गि | काययोगते जनेक देशन में विहार कर्म करते, समोशरण सहित विचरै, सो तेरहर्मा गुणस्थान है। सो याहीणी गुणस्थान विर्षे अन्तर्महर्त बाकी रहै, केईक केवलीन के समुद्रात होय है। सो समुद्घात के भेद सात हैं। सो !!