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________________ के दोय भेद हैं। तहां भोले जीवन का कल्पा जो लौकिक मोक्ष सो ता मोक्षको रौसा मान हैं कि जो आत्मा ।। मोक्षजाय सी तहाँ महासुखी रहै । पीछे शुद्धात्मा की इच्छा होय तो संसार विर्षे पोछे आवै । सो ऐसा मोक्ष । संसार समान है। काहे ते? जो जन्म-मरण तौ संसार का स्वभाव है। अरु मोक्ष विर्षे जन्म-मरण नाही। २३६ है । तात जे अल्पज्ञानी मोक्ष जीवनकौं जन्म लेना फेरि मानें हैं। सो मोक्ष हेय है। शुद्ध जो मोक्ष है। तहाँ । गया जीव फेरि अवतार लेता नाहीं। जैसे-पृथ्वी की खानि विष ते अग्नि आदि के निमित्त पाय करि ।। यतनपूर्वक कादया जो सुवर्ण, सो मिट्टी से भिन्न भये पीछे मिट्टी में मिलाइये तो मिलता नाहीं। तैसे ही शुद्ध जीव, कर्म मल दुरि कर मोक्ष भरा पीछे तन रूपी मिट्टी में मिलता नाहीं। तातै मोक्ष भर पीछे जिस मोक्षत पीछा जन्म होय सो मोक्ष विवेकीन के तजने योग्य हेय है। अरु केतेक मोले पण्डित हैं ते मोक्ष जीवकों राग-द्वेष सहित मानें हैं ऐसा कहै हैं जो मोक्ष मैं भगवान, सर्व संसारी जीवन . लेखा लेय है। सो जाने अपनी भक्ति नहीं करी तिनक नरक-कुण्ड मैं डार है और ज़ारा अपलात जाने है ताकों अपने पास मोक्ष में राजी होय राखे है । सो भो भव्य ! हो ऐसा राग-भाव अरु द्वेष-भाव मोक्ष में नाहीं। जहां राग-द्वेष होय सो संसार स्थान जानना । तातं राग-द्वेष सहित जो मोक्ष होय सो हेय है और केतक संसारो चतुर नर ऐसा मान हैं। को मोक्ष विष पंचेन्द्रिय महासुख है। या कहै हैं जो मोक्ष विर्षे भगवान्कू इन्द्रियजनित बड़ा सुख है। ऐसा सुख और कहूँ नाही उत्कृष्ट भोजन अमृतमयी भोगने योग्य रस ताळू भोग है और अनेक सुख नासिका इन्द्रिय क सुखदाई ताहि सूघे है और नाना प्रकार के नृत्य-गीत-वादिन भगवान् के मुख आगे मोक्ष मैं अनेक अप्सरा चरित्र सहित करं हैं । तिनको भगवान देखि महासुख भोगवे हैं। इन आदि अनेक अप्सरानकों भोग सहित अनेक इन्द्रियजनित सुखकू भोगवे है । सो हे धर्मात्मा जीव! तूं चित्त देय सुनि । अरु मन में विचारि । जहां इन्द्रिय सुख है । सो मोक्ष नाही संसार ही जानना और मोक्ष है तहा इन्द्रियजनित सुख नाहीं। मोक्ष सुख तो इन्द्रियन अतीत है। अतीन्द्रिय सुख का भोगता शुद्धात्मा है! इन्द्रिय सुख आकुलतारूप है और मोक्ष आकुलता | रहित है। तातें जिस मोक्ष मैं इन्द्रिय सुख होय सो मोक्ष हेय है और केतेक ज्ञान-चक्षु-हीन ऐसा कहे हैं। जो मोक्ष वि भगवान् सदैव बैठे पुस्तक के पत्र देखा करै हैं। तहां संसारी जीवन के आयुष का प्रमाण लिया है।। 4. २३६ TE
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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