SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 325
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ब भाई-बन्धु-कुटुम्बी-सहकारी सजन नहीं होंघ, तहाँ नहीं रहना और जहां जिन मन्दिर नहीं होय, धर्म-प्रवृत्ति । नहीं होय, तो ऐसे धर्म-रहित क्षेत्र विर्षे, धर्म का लोभी धर्मात्मा सुजोव नहीं रहे औरजा देश-पुर में विद्यावान्-॥ ३१७ पण्डित नहीं होय, तिस क्षेत्र में नहीं रहिये । अगर रहै, तो अपना बान नष्ट होय । अज्ञानी जीवन के संगत, आप अज्ञानी होय । जैसे-गोपाल, पशन के सदेव सङ्ग तें, आप भी पशु समानि, अज्ञानी रहै है और जीव का भला करनहारं शुद्ध-धर्म की प्रवृत्ति-क्रिया अहा नाही होचा क्षेत्र में नाहीं रहै। कुधर्मोन मैं रहे. तौ सुधर्म का अभाव होय । तात धर्म-रहित क्षेत्र में नहीं रहिये और जहां खोटे-संग के मनुष्य सप्तव्यसनी होय । चोर, ज्वारी, अनाचारी जीव होय । अरु सत्संगति के सुमाचारी नहीं होय, तहाँ नहीं रहिये और ऊपर कहे कारण जहाँ होंय, तहां बुद्धि-बल का धारी धर्मात्मा, ऊँच-संग का वाँच्छक, ऐसे स्थान मैं नहीं रहै और जो रहै, तो अपने भले गुण-धर्म का अभाव होय । रोसा जानना। आगे इन स्थान में लज्जा करिये नाही, ऐसा बतावे हैं गाथा-हार विहारे जूझे, गित गोतेय त वादाए । भोगो वाजय पठती, यह वह धलेय सज्ज नहि बुझा ॥ ७६॥ । अर्थ--भोजन में, व्यवहार मैं, युद्ध में, नृत्य करने मैं, गीत गाने में, जुजा खेलने में, वाद-विवाद (शास्त्रार्थ) करने में, पंचेन्द्रिय मोगन मैं, वादित्र बजावने में, पढ़ने में, इन दश स्थानन में, विवेकीन कौं लज्जा करना योग्य नाहीं है । भावार्थ-जहां भोजन जीमत लज्जा करें, तो भला रहै, खेद पावै, लोक-हाँसि होय, भोलापना प्रगट होय । जैसे-धर्म-परीक्षा में मूरखन को कथा कहो। तहां एक मूरख ससुरार षाय, भोजन में लज्जा करि, रात्रिकौ कोरे चावल खाय, मुख फड़ाया। लोक-हाँ सि भई, अज्ञानता प्रकट भई। तातें भोजन में लज्जा करै, तो इस मूरख ज्यों खेद-हाँसो पावै । तातें यहां लज्जा नहीं करना।। और व्यवहार विष लज्जा करें, तो व्यापार नहीं बनै। तात व्यापार में लज्जा नहीं करनी ।२। और वैरी ते युद्ध करत लज्जा करै, तौ युद्ध हारै मारचा जाय 1३। और नृत्य में लज्जा करें, तो नृत्य-कला यथावत् नाहीं बने समय वृथा जाय । तारौं नृत्य-समय में लज्जा नहीं बने ।। ज्वारीकों द्यूत-रमते लज्जा नहीं होय । तहाँ लज्जा करै, तो धन हारे। तातें चूत में लज्जा नहीं करनी।। और वाद समय, परवादी (प्रतिवादी) सूधर्म-कर्म का वाद करते लज्जा करें, तो वाद हारे। तात वाद-समय लज्जा नहीं करती। और पंचेन्द्रिय-भोगन समय में
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy