SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 449
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ । भी दया-भाव का फल बतावे हैं--- गाथा--राहु हित कय पजाओ, आद राहु पाण सुंद तण होई । इन्द अहमिन्द शगंदर, किप्पा भावोय होय फल मेहः ॥११२॥ | अर्थ-सह हित कय पज्जाओ कहिये, सर्व कौ हितकारी पर्याय। आदे सहु धान कहिये, सर्व स्थान | विर्षे आदर। सुंद तरा होई कहिय, सुन्दर शरीर होया इन्द कहिये, इन्द्र पद। अहमिन्द कहिले, अहमिन्द्र पद। सगंदउ कहिये, नागेन्द्र पद। किप्या भावोय होय फल येही कहिए, दया भावका फल ऐसा होय है। भावर्ध—जिनका मुख देखते ही सर्व जीवन कू सुख उपज, विश्वास उपज, मोह उपज, रोसी सुन्दर काया पावनी. सो दया भाव का फल है। दयाभाव बिना महा कुरूप, भयानक, रौद्र आकार, सव कौं अरति उपजावे ऐसा शरीर पावै है। और जिन जीवन का जगह-जगह प्राव-आदर होय, जिनकू देख सर्व प्राणी प्रोति भाव करें. ऐसा आदेय कर्म के उदयवाला सर्व कों वल्लभ होय। सो दया भावका फल जानना । और जाका शरीर महा सुन्दर, कामदेव के शरीर की शोभा कुंजीते, देवन के मनकों मोह उपजावे, अद्भुत शोभाकारी शरीर, सो दया भाव का फल है। और ग्लानि उपजावनहारा, विकट, असुहावना कुरूप इत्यादिक अशुभ कर्म के उदय का शरीर पावना, सो निर्दयी भाव का फल है। और देवन का नाध, असंख्याते देव-देवो जिसकी आज्ञा मान, आय-आय महाभक्ति करि अपना शीश नमा, सर्व देव जाकी स्तुति करें, ऐसा इन्द्र पद का पावना. सो भी दया भाव का फल है। तथा कल्पातीत जो देव हैं, जिनको महिमा वचन-अगोचर है। जितना सुख सर्व कल्पवासी सोलहों स्वर्गकि इन्द्र-देवन का है, तिन ते अधिक कल्पातीत जो अहमिन्द्र तिनका है। यहां प्रश्न-जो तुमने कहा कि कल्पवासी देव-इन्द्रन तें अहमिन्द्रन के सुख अधिक है। सो कल्पवासी देव-इन्द्रन कैं तो अनेक देवांगना हैं। तिन सहित सुख भोग हैं। और अनेक देव आघ-आय शोश नमावै हैं। असंख्याते देवों के नाथ हैं। पंचेन्द्रीय सम्बन्धी सुख मान घोषवै सम्बन्धी सुख, सो सर्व इन्द्रन के प्रत्यक्ष दीख हैं। परन्तु अहमिन्द्रों के देवांगना नाही. कोऊ आज्ञाकारी सेवक-देव नाहीं। तो इनके कल्पवासी इन्द्रन ते अधिक सुख कैसे सम्भवै ? ताका समाधानभो भव्य ! तुम चित्त देय सुनो। सुखके दोय भेद हैं। एक तो संक्लेशता सहित सुख, एक निराकुलता सहित सुख । सो संक्लेश सुख तें, निराकुल सुख अधिक है। जैसे एक पुरुष अपनी रत्रोंकी पोट अपने शीश पै ४१
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy