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________________ श्री । ताके निमित्त पाय जो जीव जिस भाषा करि सममें जाका जैसा अभिप्राय होय तथा जाकं जैसा उपदेश योग्य होय तिस जीव के श्रोत्र-इन्द्रिय द्वार तिष्ठै पुद्गलस्कन्ध, तिसही अर्थ के लिये तैसे ही अक्षर रूप होय, परिणमैं है। ||९४ तिस करि सर्व जीव, जुदा-जुदा उपदेश धारण करें हैं। ऐसे अतिशय सहित भगवान् की वाणी का होना सो दिव्यध्वनि प्रातिहार्य है।६। तीन रत्नमयो छत्र. भगवान के मस्तक फिरें। सो छात्र प्रातिहार्य है।७। देवन करि ढोरे गये ६४ रत्नमयी चमर गंगाधारा समान उज्ज्वल सो चमर प्रातिहार्य सहित भगवान् समोवशरण में विराज हैं।८। भगवान के है तो एक मुख, परन्तु च्यारों दिशा विर्षे तिष्ठते जीव तिनकू च्यारों ही तरफ मुख दो च्यारों हो दिशा के जीव ऐसा जाने, जो भगवान का मुख हमारे सन्मुख है तथा उन्हें भगवान् के च्यारि मुख दी है। भगवान् की मुद्रा, बिना यत्न ही नासाग्र-दृष्टि धरै, ध्यान रूप समता-रसमयी होय है। तातें भगवान् का दर्शन करनहारे भवान की. दर्शन करते ही, ध्यान मदा का स्मरण होय, शान्त दशा होय है। तात वीतराग-भाव बध है सो मुद्रा अतिशय सहित है । कदाचित् शान्तमुद्रा नहीं होती तो भक्तन का भला नहीं होता। तातै पर-जीवन का भला करनहारी, विश्वास उपजावनहारी, ध्यान रूप, पद्मासन, कायोत्सर्ग मुद्रा हो है सो ध्यान मुद्रा के धारी भगवान् तिनकी बाह्य संपदा तो समोवशरण है। आम्पन्तर संपदा अनन्त-चतुष्टयादि अनन्त गुण हैं। ऐसे भगवान् कं हमारा नमस्कार होऊ और जो भव्य भगवान के दर्शनक, समोवशरण में जांय हैं, सो देव-विद्याधर तौ स्वेच्छा से जाय हैं। भूमि-गोचरी मनुष्य तथा तिर्यंच, पगथेन की राह चढ़ि करि जाय हैं सो कई जीव तो सीधे ही पगथैन चढ़ि दर्शनकौं चले जांथ हैं। कई जीव पगथेन चढ़ि के पीछे समभुमि 4 जाय कैं, समोवशरण की गली की राह होय, अनेक रचना देखते, दर्शनकौं जांय हैं सो जे देव, विद्याधर. चक्री आदि भव्य हैं। सो प्रथम पोठि पर्यंत जाय हैं अरु दर्शन करि, अपने कोठेमें जाय तिष्ठे हैं। पीछे केई जीव बाहिर आय, जिन-गुण-गानादि करें हैं सो समोवशरण विौं गये, ऐसा अतिशय होय है कि अन्धे तौ नेत्र से देखें, बहरे सुनें, रोगी निरोग होय । अनेक दुख सहित जीव दुख तजि सुखी होय हैं समोवशरण में गये अनेक आरति, दुख. शोक, चिन्ता. मय दूर होय हैं। तहा सर्व प्रकार सुखी होय हैं। परस्पर जीवनके वैर-भाव नहीं रहे है। तहां सिंह-गाय-भोर-सर्प, मुसा-मारि, कुत्ता-बिल्ली इत्यादिक जति-विरोधी जीव, वैर-भाव तजि मैत्री-भाव करें हैं। तहा स्थान तो संख्यात अंगुल प्रमाण है। परन्तु तहा
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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