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________________ कह्या, जो यहाँ कछु द्रव्य लगावना तथा तन तें यहां कडू वैद खावना ज्यों पुराप होय। ऐसा प्रबन्ध विचारचा। सो सब कौ परस्पर बम चले कि जो धर्म-वृद्धि कं यह उपाय विचार या है, सो इस प्रबन्ध में सर्व प्राणीन कू ।। | ३५० रहना योग्य है, सो ऐसा सुनि के कोई कहै, जो हम काहू के प्रबन्ध में नहीं, अपनी इच्छा होय तैसे धर्म साधन करेंगे जाकौं प्रबन्ध में रहना हो सो रहो, हम नहीं हैं। ऐसी धर्मात्मा-सभा के खण्डवे को मद सहित वचन बोले, सो महामूर्ख कहिये। ये धर्म-सभा विरोधी वचन महापाप-फल का दाता, धर्म-घातक वचन है। सो धर्मात्मा विवेको ऐसा नहीं बोलें। धर्मात्मा होय, सो धर्म प्रबन्ध रूप वचन सुनि के, हर्ष सहित सर्व कं ऐसा कहै, जो तुम धन्य हो। भली विचारी। हम जाज्ञा प्रमाण सर्व के वचन प्रबन्ध में शामिल हैं। सर्व नै करो, सो हमकं प्रमाण है। ऐसा वचन सभा में बोलना, उत्तम धर्म फल का दाता, धर्म-समा सुहावता होय है । सो रोसा बोलनहारा प्ररुष प्रसंशा योग्य है और जो पापात्मा होय, सो धर्म-समा विरोधी वचन बोले है, सो ये पाप-बन्ध का कारण है। तातै पाप ते भय खाय, धर्मात्मा धर्म-समा विरोधी वचन नहीं बोलें हैं। । और राजन की सभा विर्षे वचन बोलिये सो सत्य व विनय सहित, अपने-पराए पदस्थ प्रमाण, राजा आदि सर्व सभा क सुहावता वचन बोलना, सो विवेको का धर्म है और कदाचित् राजा के अविनय सहित तथा सभा कू अप्रिय, सभा विरुद्ध वचन बोले, तो मरणादि दुःख कं प्राप्त होय। तात राज्य-समा विरुद्ध वचन नहीं बोलिये। २। और पंचन में जहाँ सर्व पंच भले-मनुष्य न्याति के तथा पर-याति के मिल, मनसूबा तथा न्याय करै हैं तथा कोई प्रबन्ध करते होंय । तहां कोई परस्पर पूछ हैं। भाई हो! सर्व पंचन का यह प्रबन्ध है। सो इस मनसूबे में कायम हो अक नाही? फलाना जी, पंच तुम पे रोसा दोष लगावें हैं। सो ऐसा डण्ड विचारे हैं। सो तुमको कबुल हैं कि नहीं? तब विवेकी पुरुष तौ ऐसा कहै । कि भाई! हम बड़े हैं तथा धनवान हैं तथा राज-पंचन में बड़ा हमारा पदस्थ है तो कहा भया? ये हम कुं दोष है । सो सर्व पंच मिल ठहरावें, सो हमको प्रमाण है। पंचन को आज्ञा हमारे शिर पर है। इत्यादिक पंचन की बड़ाई व अपनी लघुता रूप वचन बलै, सो विवेकी है। सो वचन बोलना, पंचन में प्रशंसा योग्य है। यशदायक है और कोई भोरा, मन्द जान करि, अपयश कर्म के उदय, ऐसा कहै। कि जो । हमको दोष लगायें हैं। ऐसे-ऐसे दोषवाले तो हम पंचन में घने बतावेंगे। हमारे ऊपर कोई दोष लगावैगा तो
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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