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________________ २१. सेवन करथा होय इत्यादिक बड़ा पाप किया होय पीछे आप गुरूप कहै तौ आचार्य याकी सर्व दीक्षा छर्दै। नये सिरेते दीक्षा देय तब शुद्ध होय । जैसे-लौकिक मैं कोईको भारी दोष लागै तौ ताकौ सर्व घर-मालधन लटै रङ्ग समान करि डारै तब शद्ध होय अब नये सिरेते कमावो तब खायो-इकद्रा करो। तैसे केतेक दोष ऐसे हैं जो आचार्य याका दीक्षा धन सर्व छदै गृहस्थ समान असंयमी कर नये सिरतें दीक्षा देंय तब निर्दोष शुद्ध होय । याका नाम मूल-प्रायश्चित्त है ।८। और नवाँ परिहार प्रायश्चित्त है। ताके दोष भेद हैं। एक तो अनुपस्थापन एक पारंचिक। तहां अनुपस्थापन के भेद दो। एक निज गरास्थापन एक परगणस्थापन । तहां शिष्यमैं प्रायश्चित्त मये आचार्य शिष्यकौं अपने ही संघमैं राखै सो निजगणस्थापन प्रायश्चित्त है और शिष्य मैं चुक भए संघरौं काहि देंय. पर संघ मैं राखें। जैसे-लौकिक मैं भी काहू मैं कोऊ चूक भए राज-पंच अपने नगर निकासि देय पराए देश मैं राखें। शुद्ध भए बुलावें। तैसे संघ काढ़ि परगण में राखि शुद्ध करें। ऐसे केतक दोष हैं आचार्य जिनमें यह दण्ड देय शद्ध करें हैं सो परगणस्थापन प्रायश्चित्त है। इनमैं निजगणस्थापन उत्तम है और परगणस्थापन बहुत मानभङ्गका कारण है। तातें महासखत है। सो यह उत्कृष्ट दण्ड कौन-सा है और कौन गुनाह पै कौन मुनिक होय सो कहिए है। उक्त च आचार सार ग्रन्थे-- श्लोक-द्वादशाब्देषु षण्मास, पामासानसनंमतम् जघन्ये पञ्च पञ्चोपवास, मध्यात्तु मन्यमम् ॥ १॥ ____ अर्थ-जहां कोई शिष्यपै उत्कृष्ट दण्ड देय, तो षट-षट मासके उपवास उससे बारह वर्ष पर्यन्त करवावें और जघन्य दण्ड देय, तौ पंच-पंच उपवास बारह वर्ष लौं करावें। मध्यम दण्ड देय तो उत्कृष्ट और जघन्य के मध्य में यथायोग्य उपवास करवावें और जिनको ऐसे भारी दराड होंय सो संघ मैं कैसे रहैं ? सो कहिये है। ऐसा दण्ड होय तिस शिष्यकों आचार्य को रोसो आज्ञा होय जो संघत बत्तीस धनुष अन्तर तें तौ रहो। सर्व संघको नमस्कार करो। संघ के मुनि ताकी पिछान नमस्कार नहीं करें। ताका दोष जगत् मैं प्रगट करवैकों ऐसी आज्ञा होय, जो पीछी उल्टी राखौ। मौनते रहो, कोई मुनि श्रावकतें बोले नाहीं। कदाचित् बोले हो, तौ संघनाथ-आचार्य-अपना गुरु तातें बोलें, नहीं तो मोनि रहै। ऐसा दण्ड रीसी चूक भरा होय, जो काहू मुनिने ! कोई मुनि का शिष्य फुसलाय हर ले गया होय तथा कोई मुनि की पीछी, कमण्डल, पुस्तकादि हर या होय तथा
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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