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के सेवकों ने याकी शद्ध जानि तज्या। अरु कही अबके बच्या है। अब इस राह आये मारचा जायगा।।
या कहिकै छोड़या दोष मिट्या तथा कोई रोगोकं घृत मर्ने था सो वान लोभकरि घृत खाया तब रोग दीर्घ । मया । तब वैद्यनै कही ते घृत खाघा तातै रोग बया । तेरे घृततें राग बहुत तातै रोग मिटता नाहीं । तब रोगी
२०९ | आप घृतत महादुख होना जानिके जीवन लौ घृत का ही त्याग किया तब वैद्यनैं याकं सुखी किया। तैसे
केतेक दोष ऐसे हैं जो जिस वस्तु के मोहर्ते दोष लागे, ता वस्तु का ही त्याग करे तब दोष मिट है, यह विवेक-प्रायश्चित्त है। जहां मुनीश्वर अपनें चारित्रको दोष लागा जानें, तौ ताके दुर करवेकौं कायोत्सर्ग | करें। तहां पंचपरमेष्ठी की स्तुति व अपनी आलोचनादि करें, तब दोष मिटै। जैसे-लौकिक मैं कोऊ आप मैं दोष लागा होय, ताहि जानि पश्चन मैं खड़ा होय हाथ जोड़ि कहै मोतें भूल भई, तुम बड़े हो रोसे पंचन को स्तुति अपनी दीनता करी। तब पंच याकौं सरल जानि चूक माफ करि शुद्ध करें। तैसे केतक दोष ऐसे हैं, जो कायोत्सर्ग करें तथा आलोचना किए नाश जाय सो व्युत्सर्ग-प्रायश्चित्त कहिये । ५। जहां यति अनेक उपवास धुरन्धर तप करनहारा वीतरागी तप करतें कोई प्रमादवशाय अपने तप कौं दोष लागा जानि याद करि आचार्यन चै कहै। तब गुरु याकौं कोई यथायोग्य प्रायश्चित्त देंय, सो यह मुनीश्वर का दिया प्रायश्चित्त ताहि महाविनय सहित लेय, तब दोष दूर होय । जैसे—लौकिकमैं काहमैं कोई चूक परे । तब थोरा-बहुत द्रव्य लगाय चेत कराय शुद्ध करें। तातें केतेक दोष ऐसे हैं, जिनमें आचार्य प्रायश्चित्त तय बतावै हैं । ताही प्रमाण तप धारण करै तब शुद्ध होय । सो याका नाम तप-प्रायश्चित्त है।६। जहाँ कोई बहुत । दिन के दीतित बड़े तपसी तिनकू प्रमादवशाय कोई दोष लागै, तब याद करि आचार्यकू कहैं। तब गुरु ।। इनकी दोक्षा मैं केतैक दिन छेद ना । दीक्षा के दिन घटाय शुद्ध करें। जैसे-लौकिक मैं काहू मैं चूक पड़े, तब पंच वाकै पासतें केतेक दिन की कमाई का धन खर्चाय, वाके घरतें धन घटाय निर्धन करें। जागे ते रोसा काम फेरि नाही करै । तैसे ही कैतेक दोष ऐसे हैं जिनके प्रायश्चित्त में दीक्षा दिन घटावें। जैसे-|| पांच सौ वर्ष तप करया होय तो दोय सौ पचास वर्ष यथायोग्य घटावे, तब शुद्ध होय याका नाम घेद-|| प्रायश्चित्त है। ७। कोई मुनिकौं मान के योगतै दोष लागा होय तथा कोई मुनि धर्मकं तजि खोटा मार्ग
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