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________________ एक है, पश्वपञ्चोत्तरन का पटल एक है, ऐसे स्वर्ग स्वर्गन के पटल सठि हैं। इति पटल । अागे स्वर्ग प्रति इन्द्र कहिये है। तहां प्रथम युगल के इन्द्र दोय हैं। दूसरे युगल विर्षे इन्द्र दोय हैं। तीसरे युगल में इन्द्र राक है। | चौथे युगल में इन्द्र एक है । पाँचवें युगल में एक इन्द्र है। छठे युगल में इन्द्र एक है। सातवें युगल में इन्द्र दोय हैं। आठवें युगल में इन्द्र दोय हैं और अहमिन्द्रन में इन्द्र नाहीं। वह सर्व ही भाप-आप इन्द्रसम है। इति इन्द्र संख्या। आगे स्वर्ग प्रति विमान की संख्या कहिये है। तहाँ प्रथम स्वर्ग के विमान बत्तीस लाख हैं और दूसरे स्वर्ग के अठाईस लाख विमान हैं। ऐसे सर्व मिलि प्रथम युगल के साठि लाख विमान हैं। तीसरे सनत्कुमार स्वर्ग के बारह लाख विमान हैं और चौथे महेन्द्र स्वर्ग के आठ लाख विमान हैं-श सर्व मिलि दूसरे युगल के बीस लाख विमान हैं । ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर के मिलि च्यारि लाख विमान हैं। चौथे युगल के पचास हजार विमान हैं। पाँचवें युगल के चालीस हजार विमान हैं। छठे युगल के षट् हजार विमान हैं और सातवें युगल के पर पाठवं युगल के मिलिकै सात सौ विमान हैं और नव ग्रैवैयक के तीन त्रिक हैं। तहां प्रथम त्रिक के ११३ विमान है, दूसरे त्रिक के १०७ विमान हैं, तीसरे त्रिक के () विमान हैं। ऐसे सर्व मिलि नव ग्रैवेयक के ३०६ विमान हैं। नव अनुत्तरों के विमान हैं । पञ्च पश्चोत्तरों के पाँच विमान हैं। ऐसे सर्व कल्पातीतन के ३२३ विमान हैं। ऊर्ध्व-लोक के स्वर्गवासी देवन के विमान मिलाईए तो ५४.६७,०२३ विमान हैं। सो इन सर्व विमाननमैं एकएक जिन-मन्दिर है। तिनको हमारा बारम्बार नमस्कार होह। इति विमान संख्या। आगे धरतीत स्वर्ग की ऊँचाई कहिये। तहां पृथ्वीतें लगाय लाख योजन ऊँचा तो प्रथम युगल का प्रथम इन्द्रक है और पृथ्वीते डेढ़ राजू ऊँचा प्रथम युगल के इकतीसा पटल का इन्द्रक है। पृथ्वीते तीन राजू अरु अन्त पटल के अन्त पटलते डेढ़ राजू ऊँचा दूसरे युगल का अमल है। दूसरे युगलत आधा राजू ऊर्ध्वको तीसरे युगल का अमल है। तीसरे युगलते आधा राजू ताई ऊपर चौथे युगल का अमल है। चौथे युगलसे आधा राजू ऊपर ताई पाँचवें युगल का अमल है । पाँचवें युगल तें आधा राजू ऊँचे तांई छठा युगल का अमल है। छठे युगल ते सातवाँ युगल आधा राजू ऊँचा है। सातवें युगलते आठवाँ युगल आधा राजू ऊँचा हैं। ऐसे षट् राजू मैं तौ सोलह स्वर्ग के आठ युगल हैं। ऊपरि राजू के आदि नव ग्रैवेयक हैं राजू के मध्य भाग विर्षे नव अनुत्तर है। राजू के अन्त सर्वार्थ १५५
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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