________________
३२९
धन्य है जो औगुण का प्रवेश नहीं होने देय है। हे भव्य हो! यो सत्संग जो अनादर करे, सो पर के दोष मिटायवे कंकरे है। ता सत्संग का अनादर ही भला। सत्संगोन के काहूत द्वेष नाहों। जो कुसंगी जीव अपना औगुण धांडि देय, तौ वाही का आदर करें। ताते है सुबुद्धि! जो तु अपना भला किया चाहे, तो सत्संग में रह।। सत्संग का अपमान तैरे दोष छुड़ाने कुं है । तातै सत्संगी तेरा अपमान करें हैं। सो तैरे उत्कृष्ट सुख का कारस है। सत्संग के अपमान ते कदाचित मान के योग से बुरा मान्या तौ तेरा पर-भव बिगड़ जायगा। तेरा औगुण नहीं जायगा। तालाना विवेक प्रगट करि यश नाहै है। तौ सत्संग के पुरुष जो तेरा अपमान करें हैं सो परमार्थ के अर्थ जानना ! हे भव्यात्मा! जबलौ तोकं कुसंग का आदर प्रिय लागै है। तबलौं तेरा दोष मिटता नाही अस सत्संग का अपमान भला लागता नाहीं। तात तोकू कुसंग का सत्कार स्नेह-भाव तजना योग्य है। जैसे-ज्वर सहित रोगी कं दुग्ध अच्छा भी लाग है। परन्तु ज्वर के जोगते तजना योग्य है और कट्रक-कड़वी
औषधि तथा लंघन उपादेय गुणकारी है। तैसे ही सत्संग के पुरुष तो में औगुण जानि तोसू स्नेह नहीं करे हैं। वर्तमान काल में तोकू मान बुद्धि के जोग से बुरा भी लागै। परन्तु तू विवेको है। सो कड़वी औषधि की नाई तथा लंघन की नाई सुखकारी जानना और सुनि। हे भव्य ! कुसंग का सत्कार ज्वर के माहि दुग्ध समानि है। सो किञ्चित् सुख देय पीछे दीर्घ दुःख कू करे है । तैसे हो कुसंग के अज्ञानी व्यसनी अपराधी जीव तेरा सत्कार करें हैं । ताका सुख किञ्चित् कौतुक परिणति की खुशी प्रमाण है। पीछे तिनका फल विषम दुखकारी है। जहां कोई सहाथी नाहों, ऐसे नरक के दुख ताहि भोगने पड़े हैं। ऐसा कुसंग का फल पीछे पर-भव मैं लागे है। ताते जैसे--स्याना रोगी दूध तजे तैसे कुसंग तजना योग्य है। ८६ । आगे षट् भेद म्लेच्छता के बतावे हैंगावा--मण तण घर पुर देसा झण्डादि खण्डमलेच्छ भेयाए । नहिं सुआचरण धम्मो सो अणाज्जवल भासियो सुत्त ॥ ७॥
अर्थ-मरा कहिये, मन । तण कहिये, शरीर घर कहिये, मन्दिर।पुर कहिये, नगर। देसा कहिये, देश। खंडादि खंड मलेच्छ भैयाए कहिये, खंड को आदि लैय म्लेच्छताई के षट् भेद जानना। नहिं सु भाचरण धम्मो कहिये, तहां पर शुभ आचरण नाही, शुभ धर्म नाहीं, सो अणाजथल भासियो सुत्त कहिये, सो अनार्य क्षेत्र सूत्र | विर्षे कहा है। भावार्थ-भो भव्य म्लेच्छापने के षट् भेद हैं। सो हो कहिए हैं। सो जहाँ शुम बाचरस नाही
३२९