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________________ पी ਇ ५१७ का पूजन करें। पोछें शास्त्र श्रवण-पठन करें, दोय पहर धर्म्यध्यान सेय, मुनि श्रावक कूं दान देय, आप भोजन लैो विधालय क्षेत्र रहने को भोजन करि, पीछे षोडश पहर खान-पान का सेवना तजै सो दोय पहर तोतेरस के दिन के, च्यारि पहर तेरस की रात्रि के आठ पहर चौदस की दिन-रात्रि के दोय पहर पूर्णिमा के ऐसे सोलह पहर जागरन, पूजा, ध्यान, स्वाध्याय, चर्चा, शुभ अनुप्रेक्षा का चिन्तन इत्यादिक धर्म्य-ध्यान विष पूर्ण करें। पीछे पूर्णिमा के दिन दोय पहर कूं घर जाय, द्वारापेक्षण भावना भाय, मुनि श्रावक कूं दान देय, दुखित मुखित कूं सन्तोषित करि, पीछे आप पारणा करें। सो एक बार भोजन करें। ऐसे ही मास-मास के च्यारि उपवास आयु पर्यन्त प्रमाद रहित होय करै । अरु नीचली प्रतिमा में जो क्रिया कहीं, सौ सर्व ऊपरली में गर्भित जानना | नीचे दूसरी प्रतिमा में प्रोषध कथा । सो वहां शिक्षा मात्र, साधन रूप कह्या था। अरु यहां चौथी प्रतिमा में प्रोषध का स्वामित्व-भाव है। सो यहां अतिचार रहित, आयु पर्यन्त व्रत का धारना है। तारों यहां प्रोषध प्रतिमा कही । सो याके पांच अतिचार हैं। सो हो कहिये हैं । अप्रत्यवेक्षित, अप्रमार्जित, उत्सर्गादान, संस्तरोपक्रमण, अनादर - अनुस्मृत्य । अब इनका अर्थ - जहां प्रोषध कों बैठे सो बिना भूमि शोध-माड़े ही प्रोषध कौं तिष्ठे । सो अप्रत्यवेक्षित अतिचार है |२| और जहां व्रतधारी प्रोषध करते भूमि शोध तो सही. परन्तु कोमल पीछी तैं तथा कोमल वस्त्र तैं नाहीं झाड़ें, मोटे वस्त्र तैं तथा कठोर पोछी तैं झाड़े। सो याका नाम अप्रमार्जित प्रतिचार है । २ । और भूमि विषै, बिना शोधे हो मल-मूत्र का क्षेपणा। सो याका नाम उत्सर्गादान है । ३ । और प्रोषधधारी जिस स्थान में बैठे-आसन करें बिछौना विछावै, सो भूमि शोधै झाड़े नाहीं । सो थाका नाम संस्तरोपक्रमण है |४| और जहां उत्साह बिना, धर्म भावना रहित, प्रमाद सहित, परमार्थशून्य, लौकिक यश का लोभी, और के दिखाय कौं, अनादर भाव सहित, प्रोषध क्रिया करें, सो याका नाम अनादर- अनुस्मृत्य है । ५। ये पांच अतिचार प्रोषधोपवास व्रत के हैं। इन रहित, शुद्ध भावना सहित, वैरागी व्रती अपने व्रत की प्रतिपालना करें, सो प्रोषध प्रतिमा का धारी उत्तम श्रावक कहिये है । इति प्रोषधोपवास नाम चौथो प्रतिमा । ४ । आगे सचित त्याग पांचवीं प्रतिमा कहिये है । यह पांचवीं प्रतिमा का धारी श्रावक, सचित्त वस्तु का त्यागी होय है, सो यह सचित्त जल नहीं वर्ते है । हाथ-पाँव - शोशादि अङ्गोपाङ्ग, कच्चे जल तैं नहीं धोवै है । अपने हस्त तैं नदी, सरोवर, कूप, ५१७
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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