SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 345
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३७ अर्थ-मायागभ असुहो कहिये, माया गर्मित जे पाप हैं। रिणगोयदा कहिये, वै निगोद के दाता है। अणि कसाथ एक दायो कहिये और कषाय नरक की दाता हैं। मायाजुत सयल कषायो कहिये, माया ।। सहित सकल जो सर्व कषाय । इक बे ते चवात तण देई कहिये, एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय इनके तन देंय । भावार्थ-सर्व कषायन में माया का फल बहुत ही पापकों उपजावै है। जे पीव निगोद में उपजि महादुःसी होय सो माया कषाय का फल है और अन्य जो क्रोध, मान, लोभ-इन कषायन ते नर्क होय है. निगोद नहीं होय और इन तीन ही कषायन में जो माया कषाय आन मिले, तो माया के जोग ते लोभ, मान, लोभ-- इन तीन में राकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चौइन्द्रिय होय ऐसे फल कौं उपजावे। तातें सर्व कषायन में माया कषाय दीरथ निखध्य व पापकारी है । तातै विवेकी पुरुषनक पर-भव सुख के निमित्त माथा शीघ्र ही तजना योग्य है । यहां प्रश्न-जो क्रोध, मान, लोभ-इनका फल नरक काटा और माया का फल विकलत्रय आदि निगोद कह्या । सो इनमें अन्तर कहा ? अरु माया कूनिखध्य कह्या । सो दुःन तो नरक में बड़ा दीखे, निगोदिया का दुःख तौ भासता नाहों। तातें जाका फल बहुत दुखकारी होय ताकौं निखध्य कहिये तो दुस्ख तो निगोद मैं अल्य भासे है। अरु नरक में बहुत मासे है। बरु यहां माया कषाय कौं निखध्य विशेष किया सो काहे कौं ? ताका समाधान-भो भव्यात्मा! तू नै प्रश्न मला किया। अब याका उत्तर तू चित्त देय सुनि। नरक दुःख तौ वाह्य, विशेष-विकराल मासै है। परन्तु पाँचों इन्द्रिय सबूतपूर्ण हैं । अरु इन्द्रिय-ज्ञान सबका खुलासा है। तातें दुःख थोड़ा है। आयकों कोई नारको मारे तब तो दुःख होय है । पोधे आप कोई नारकीकौं मारै तब आप खुशी होय । आप पै दुःसा आए ताकी मैटवे का उपाय करै है। बैरी कू तथा स्नेही जान है। अवधि आदि मति-श्रुत-ज्ञान की प्रबलता पाईये हैं। तातें इस नरक में सुख का निमित्त है। पाँवों इन्द्रियन का क्षयोपशम है । पर के मारवे कूतन का पराक्रम होय है। बड़ा आयु कर्म है। तातें यहां नरक विर्षे जीव अल्प दुःखी है और एकेन्द्रिय के चारि इन्द्रिय नाहीं। कर्म के उदय आया दुःसा ताकू मेटवै की शक्ति नाहीं। महादीन अल्प समय मैं मरण पावै और अल्प शीत के दुकातें मरण पावै। महाअशक्त ज्ञान रहित तातै एकेन्द्रिय महादुका का स्थान है तथा जैसे--कोई चोर को पांव बांधि ४३ ३७
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy