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________________ श्री सु र ष्टि २६५ 1 बिना दान दिये. हमको देखो। हमने पूर्व भव में धन पाया, परन्तु दान नहीं दिया। सो अब या भव में पेटभर भोजन नाहीं । तन ढकने कूं वस्त्र नाहीं । महाअपमानित भये, दारिद्र्य के जोग करि दोन होय, रङ्क भये घर-घर के दाना याचें हैं, तो भी उदर नाहीं भरे है। सो हे सत्पुरुष हो । हमने या बात सत्य मानी। जो लौकिक में ऐसी कहैं हैं कि जो दिया सो पावै, बिना दिये हाथ नहीं आवै । सो अब हमने निश्चय जानी प्रतीति, आई कि जो हमने पूर्व भव में नहीं दिया, तातें लाचार - असहाय होय बारम्बार कहिये, घड़ी-घड़ी याचें हैं तथा वारवार कहिये, घर-घर के वारने नगर में माँगते फिरें हैं तथा बार-बार कहिये, हमारा बाल-बाल अशीष देय मिक्षा मांगें है तथा बार-बार कहिये, अपने घर तैं बाहिर यार्चे हैं तथा बार-बार कहिये, बायर-बायर करि पुकारें, शोर करि यार्चे हैं। तो भी उदर नहीं भरें है तथा बार-बार कहिये, नीर-नीर घ्यावो, मारै प्यास के प्राण जांय हैं। सो पानी पियावी, पानी पियावो ऐसे दोन भये तृषा के दुःख तें पुकारें हैं सो पाप के उदय, कोई जल भी नहीं देय। ऐसे हम बिना दिये, कहां तैं पावैं ? महादुःखी भये फिरें हैं। तातें है भव्य हो ! बिना दान दिये, हमारो-सी नाई दुःख पायोगे । अरु हमारी नाई, पीछे पछताओगे । तातें अब कछु दान देने की शक्ति होय, तो दान करतें मति चूक । ऐसे एक हैं सो भिखारी का भेष करि, मानी उपदेश हो देय हैं। या भांति भिखारी का दृष्टान्त देय, दान का मार्ग बताया। तातें जो विवेकी हैं सो अवसर पाय, तिनकं दान देना योग्य है । १२३ । आगे सर्वज्ञ-केवली तैं लगाय सम्यग्दृष्टि के अरु मिथ्यादृष्टि के वचन उपदेश विषै, अन्तर बतावैं हैं- गाथा - जिन गण मुण वच सामय, अतसम जुय वयण होय समदिट्टी मिच्छो वच विण अत्तसय, इम णिष्प रंकेम वयण भेयाय ॥ ११४ अर्थ – जिरा कहिये, केवली । गण कहिये, गणधर मुण कहिये, मुनीश्वर । सावथ कहिये, श्रावक । वच कहिये, इनके वचन । अतस्य जुय वयरा कहिये, अतिशय सहित वचन । होय समदिट्टो कहिये, ए सम्यग्दृष्टि हैं । मिच्छो वच कहिये, परन्तु मिध्यादृष्टि के वचन । विण अतसय कहिये, बिना अतिशय हैं। इमि कहिये, जैसे । शिप कहिये, राजा । रकेय कहिये, रंक के 1 वयरा मेयाय कहिये, वचन का भेद है। भावार्थ - जे वचन जतिशय सहित होय, सी वचन तो सत्यपरो के लिए हैं। तात तिन वचन का धारण किये तो तत्त्वज्ञानी होय है और जे वचन अतिशय रहित हॉय, तिन वचनों तै तत्वज्ञानी नहीं होय । सो हो कहिए है। जो केवलज्ञानो सर्वज्ञ ३६५ त रं fr णी
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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