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________________ ५०५ करि, धन उपारज्या। कुटम्ब की रक्षा करी। यथायोग्य सज्जन का विनय किया। जिन-धर्म विर्षे दृढ़ प्रतोति रोग मते तैसे की सारियों को न्याय हैं धन, यश, पुण्य उपजावना । मोह नहीं बधावना। हे इस भव के माता, पिता, स्त्री, भ्रातृ. मित्र हो ! हमारे इस पर्याय का नाता है। ये जीव अनन्त-पर्याय में कई बार पुत्र तें पिता-पिता ते पुत्र, माता तें पुत्री-पुत्री से माता, स्त्री नै भगिनी, मगिती तें स्त्री, भाई नै पिता, पिता तैं भाई, मित्र ते वैरी, वैरी ते मित्र इत्यादिक अनेक नाते भए। जिस पर्याय में यह जीव मिल्या, तैसा ही नाता पाल्या। अरु ताही रूप प्रवृत्त्या । सो अब इस पर्याय के सम्बन्धी, तुम कुटुम्बी भरा हो, सो तुम सबही सज्जन अङ्गी हो। सुकृत्य के इच्छक हो सो तुमने मेरे ऊपर उपकार करि इस पर्याय का यत्र करि, याकौ बधाय पुष्ट करी। सो मैं अज्ञान रस भोना, अविनय चेष्टाको धारि तुम्हारो सेवा बन्दगी इस काय तें कछू नहीं करी। अरु और भी इस पर्याय तें कछु शुभ कार्य नहीं बना । हे कुटुम्बी प्रीतम हो मैं मन्द बुद्धि, इस पर्यायकू पाय कुसंग-योगः कुमार्ग चल्या। अरु सुपात्रनकू मक्ति सहित दान नहीं दिया। दोन-दुःखितषं करुणा करि, दान नहीं दिया। छल-बल करि, परराये धन, प्रपञ्च करि हरे शरीर पाय शोलव्रत नहीं पाल्या। पशुवत् कुशील सेवन किया । सुदेव-सुधर्म-सुगुरु को सेवा नहीं करो। अरु पाखण्डी कुदेव-कुधर्म-कुगुरुकू शुभ अतिशय सहित जानि, पूजे। सन्तन की संगति तज कर, निन्दा करी। अरु पापाचारी कुमार्गोन को प्रशंसा करी परकौं दोष लगाय, अपने दोष ढांके। शुभाचार तज्या, कुआचार सेवन किया। निशि भोजनादि कुकार्य रूप प्रवृत्त, पाप बन्ध । खाद्यास्वाद्य नहीं विचारचा। उत्तम-मार्ग तज्या। हीन-मार्ग विर्षे गमन किया। अनेक दीन मनुष्य-पशन क, द्वेष-भाव करि पोड़े-दुःखी किये। मत्सर-भाव करि सताये। सामान्य प्राण के धारी अनेक जीव, दया रहित भावन ते हते | इत्यादिक तिहारे कुल योग्य नाही, ऐसी होन क्रिया करि, मो मन्द बुद्धि ने पाप बन्ध करि अशुभ का भार अपने सिर लिया। अकार्य सहित प्रवृत्त्या अपयश रूप वासना फैलाई। ऐसे अज्ञानी जोव को, तुमने अनेक बरदासि कर ( सह कर), अपनी सज्जनता प्रगट करो। मोते मोह बुद्धि करि तुमने अपने पास राखा इत्यादिक | भो सज्जन हो ! तुम्हारी प्रोति, तुमने विशेष जनाई: परन्तु अहो सज्जन, अङ्गी हो! अहो कुटुम्बी लोगो ! अब मेरा । मायु-कर्म पूर्ण होने आया सी तुम मोपें, समता-भाव राखो। मैं महाअज्ञान, मोतें तुम्हारी सेवा का बनी नाही, ५०८
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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