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________________ श्री सु " fir ५०७ को रोग पोड़ा. दुख-दरिद्र, अन्न तन करि दुःखी मत होऊ । मेरे सर्व जीवनतें क्षमा-भाव है। सर्व जीव मोक्षमार्ग पावने का भाव करौ। अब मैंने मन-वचन-काय करि एकेन्द्रिय विकलेद्रिय आदि त्रस - स्थावर, जोद सो सर्वकूं अभय-दान दिया। सर्व जीव मेरे पैं दया भाव कर अभयदान देओ । ऐसे सर्व जीवनतें क्षमाय, पीछे अपनी आलोचना करें कि जो मैंने अपनी अज्ञानता करि, मोह फांसी में फॉसि, राग-द्वेष करि पर-वस्तु में ममत्व अपना-अपनाथ, पाप- फन्द विषै आत्मा उलझाया। मनुष्य पर्याय पाय, वृथा दुःख बधाया। हाय हाय ! अज्ञान चेष्टा का करनहारा, भ्रम बुद्धि मो-सा और कोई नाहीं । देखो, जो आगे महान् बुद्धिमान् भये तिनने मनुष्य पर्याय पाय, धर्म साधन किया। पीछे संसार भोगनत उदास होय, राज्य-सम्पदा व इन्द्रिय-जनित सुख काले नागके समान जानि, जे । तन ममत्व निर्वार, दिगम्बर होय, नग्र मुद्रा धारि, मोह फांस छेद, वन विहारी भये। बाईस परीयह सह के कर्म रूपी ईंधनको ध्यान रूपी अग्नि में भस्म करि, सिद्धलोक दिषै जाय तिष्ठे । अविनाशी भये । काय धरने तैं निरञ्जन हो धन्य हैं। मैंने तो समान सुख को देनेहारी मनुष्य पर्याय पाथ, हालाहल विष समान विषय चाहे। सुकृत कछु नहीं बन्या, अरु मरने के दिन आय पहुँचे इत्यादिक आलोचना करि, कषायन का मद तोड़, मन्द कषायी होय के पीछे ये पवित्र बुद्धि का धारी, महाविनय सहित, नम्र भावन हैं, पञ्चपरमेष्ठी कौं नमस्कार करि बारम्बार तिन पञ्च गुरुन की स्तुति पढ़ता, परिशति विशुद्धि राखकें, यह सर्व नय का वेत्ता, श्रावकन की लौकिक परम्पराय-मर्यादा का जाननहारा, अपूर्व गुण का धारी मोह तैं रहित होय व्यवहार पोषरोकौं अपने तन के प्रयोजन धारी कुटुम्बी-मोहो जन तैं, यथायोग्य विनय तैं, मिष्ट क्षमावचन कहै। शुभ अक्षर उच्चारता, न्याय वचन धर्म रस के भोंजे, संसार तैं उदास, मर्यादा प्रमाण वचन कहै। भो कुटुम्बी जनो ! अब ताई तुम्हारे हमारे पर्याय के सम्बन्ध करि एक क्षेत्र विषै एते दिन रहना भया । तातैं परस्पर मोह के बन्धान करि, एकत्व भया, सो अब हम इस पर्याय तैं मित्र होंगे सो तुम कछु मोह-भाव तैं, आर्त भाव नहीं करना । जाकरि अशुभ कर्म का बन्ध होय, पर-भव में दुःख उपजै, सो ऐसा भाव नहीं करना । है। तुम सर्व ही जिन धर्म के वेत्ता, संसार कला विनाशिक जाननेहारे हो। भो पुत्र ! तू इस पर्याय सम्बन्धी पुत्र दोऊ भलै कुल का धारी, धर्मात्मा, सज्जन अङ्ग का धारी है सो जैसे- हमने इस भव में पर्याय पायकैं न्याय 1 ली ५०७
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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