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________________ श्री सु ह ष्टि १४१ उपद्रव करें हैं। तो मी करुणाभावी समता सागर जगत् का पौर हर कोई तं द्वेष भाव नहीं करै । जो कोई निर्दयी पुरुष मुनिकों लात मुक्कातें मारैं तब योगीश्वर ऐसा विचारें जो मो याका कछु अपराध बना है तातें यह मारे है । यह कोई दयावान है । तातें मोकूं लकड़ी तैं तो नहीं मारे है। तनतें ही देय है। कोऊ कठोर चित्तधारी मुनि लाठी लकड़ी तं मारे तो ऐस विचारें जो कोई शस्त्र तौ नहीं मारे है और कोऊ पापात्मा शस्त्र ही मारै तौ यति ऐसा विचारें जी मैं चेतना अमूर्तिक मेरा तो घात है नहीं। मैं इस तन बन्धन बन्दीगृह में रुका हौं । सो यह उपकारी मोकूं करुणा करि तन बन्दी गृह तैं छुड़ायें है ऐसा विचार समता रस का धारी आप मैं दोष जाने पर तैं द्वेष-भाव नहीं करै सो बधबन्धन परीषह विजयी साधु कहिये । १३ । जो मुनीश्वर तप भण्डार अनेक उपवासन के पारणे नगर मैं भोजनकों जांय तहां अन्तराय होय तौ पीछे वनकौं जांय ध्यान अध्ययन करें। दूसरे दिन फिर जाय तब अन्तराय होय ऐसे अनेक उपवासन के पारणे मुनिक ऊपरा ऊपर अन्तराय होय तो भी ज्ञानामृतपानपुष्ट यति तनतै निस्पृह क्षुधा के योग याचना नहीं करें। ध्यानमूर्तिक चारित्रमण्डार अपनी संयम प्रतिज्ञा का लोभी अपनी अयाची वृत्ति मलिन नहीं करै सो अयाचना परीषह विजयी साधु कहिए | १४ | मुनीश्वर के भोजनकों नगर मैं भ्रमतें अन्तराय होय तथा काहूनें पड़गाहा नाहीं ऐसे बहुत दिन भए हॉय भोजन का लाभ नहीं होय तौ परम योगी तन का त्यागी। सन्यासी गुरुको खेद नाही होय तो यतीश्वर पुद्गलीक तनकं जुदा जानि उपचार नाहीं करें सो रोग परीषह साधु कहिए । १५ । राज अवस्था में गलीचा गदैलादिक ( गदादि ) अनेक कोमल बिछौना में पांव धरै सो ही जीव जग का विभव विनाशिक जानि सब विषय सामग्री विषवत् जानि करि जगत् पूज्य यतिपदकौं धारि एकाकी कठिन धरतो पै चलै सो कोमल पॉवन लगे जो तीक्ष्ण कांटे, पाषाण खण्ड, काष्ठ खण्ड, तिनकादिक तिनकरि पांव फटि गए सो पावन श्रोणित की धारा चलो तौ भी यति ईर्ष्या-समिति धारक वित्त विषै कायर नाहीं होय, सो तृणस्पर्श परिषह विजयो साधु कहिए । १६ । जे राज अवस्था मैं अनेक सुगन्ध लैप, चन्दन अरगजा अतर खुशबू केशर कस्तूरी आदि अनेक सुगन्ध लेप करि गमन होते, सो ही अब सर्व दशा संसारिक की विनाशिक जानि तन ममत्व भाव छोड़, डारी है तन की शोभा जिनने तिनका सर्व तन मांस सूख गया। नशा जाल रह गया। थावज्जीवन स्नान का त्यागी, तप करें तनपे 1 १४१ ་ ₹ मि पी
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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