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तातै यह धन्य है। ऐसा जानि लौकिक गुरु ते मला-शिष्य प्रसन्न ही होय है। सो ये शिष्य कनक समानि जानना और अगर-चन्दन ताफौं जेता छेदी तेती ही सुगन्ध देध है। जेता घिसो, तोड़ो, जालो पर चन्दन उत्तम है. सो || २८२ त्यों-त्यों भली सुगन्धित देय है। तैसे ही सज्जन पुरुषनकों भी कोई पापी दुर्वचनादि से उपद्रव करै दुख देय तो धर्मात्मा-पुरुष द्वेष नाही करें। जैसे-राजा श्रेशिक का पत्र-वारिषेण महाधर्मात्मा सजन-स्वभावी सो र राज पुत्र पर्व के दिन उपवास करि रात्रि-समय मसान-ममि मैं सर्व जीवनत क्षमा-भाव किए कायोत्सर्ग-मेरु की नाई धीर-चित्त किरा धर्मध्यान रूप तिष्ठे था । सो चोर नै मयतें चोरी का हार इनके पासि डारि गया । सो चोर तो भाग गया। अरु पीछे कुतताल लाया । सोहार देख्या राजपत्र देकर सो थाने जानी ये ही चोर है। सो बिना समझे, कुतवाल ने राजा त कही। हे नाथ! वारिषेष ने चोरी करो। तब राजा श्रेशिक भी न्याय-मार्ग के वश, कछु न विचारता भया। राजा ने मारने की आज्ञा दई। तब कुतवाल मसान में जाय वारिषेण 4 मारिवे कू खड़ग चलाश। तब कुमार के पुण्य प्रभाव ते शस्त्र था, सो फूल माला भई। देवों ने आय सहाय किया। जब ये अतिशय ऐसा हुआ। तब सुनिक राजा श्रेणिक, पुत्र 4 गया। क्षमा कराय। कही पुत्र घर चालो। तब वारिषेश ने कही हमारा सबसे क्षमा-भाव है। हमारे प्रतिज्ञा था कि उपद्रव मिटे दीक्षा का शरण है। सो अब उपसर्ग गया तब दीक्षा लई। कोई राजा तें व कुतवाल तें सुबुद्धि कुमार ने द्वेष-भाव नाहीं किया। सो सज्जन पुरुषन का सहज ही ऐसा स्वभाव है जो पर को अज्ञान चेष्टा नहीं देखें अपने सज्जन-भाव ही की रक्षा करें। तातें ईस-दण्ड, कनक, अगर-चन्दन और सज्जन-पुरुष ये च्यार पदार्थ सब जीवन कं सुखदाई हैं। ऐसा जानना । तात जे विवेकी हैं तिनकं करता तजि, सजनता अङ्गीकार करना योग्य है। इति श्री सुदृष्टि तरङ्गिणी नाम मन्य के मध्य में ज्ञेय-हेय-उपादेय स्वरूप वर्णन करनेवाला इकईसा पर्व सम्पूर्ण भया ॥२१॥
जागे ऐसा कहैं हैं जो मुर्ख को धर्मोपदेश कार्यकारी नाहीगाया-अनवदीपणकज्जो, वरोरायस्स हीजतियसंगो। पतिगतनारिसिंगारो, जोसठयासेयधम्म विणकजा ॥ ५९॥ अर्थ-अन्धे पै दीपक है, सो कार्यकारी नाहों । बहरे पर राग (गाना) कार्य-कारी नाहीं । अरु हीजरे
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