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। है। यह जीव तौ निरन्तर अविनाशी सुख कू चाहै है। तातं हे सुख के अर्था जीव हो! तुम्हारी बाच्छा प्रमाण | सुख का स्थान सिद्ध पद है। तहां ध्रुव-अविनाशी सुध है। सो सुख, सर्व कर्म के नाश तें पाईये है। तातें तुम
कौ सदैव अविनाशी सुख की अभिलाषा है तो जैसे बने तैसे सर्व कर्मन का नाश करौ, ज्यों मोक्ष होय । सर्व सुख का स्थान मोक्ष है। सो सुख का आश्रय जो मोक्ष है, सो रत्नत्रय के आधीन है । सो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र-ये तीन रत्नत्रय, मोक्ष का आश्रय हैं। रत्नत्रय बिना, मोक्ष नाही और रत्नत्रय हैं सो मुनि-पद के आश्रय हैं। मुनि-पद बिना, रत्नत्रय के होता नाहीं। मुनि-पद है सो नर तन बिना होता नाहीं। तात मुनि-पद का आश्रय, नर का शरीर है। मनुष्य शरीर की स्थिरता, भोजन बिना रहती नाहीं। तात मनुष्य के तन का आश्रय भोजन है और मुनीश्वर का भोजन. धर्मों वावक सआचारी बिना होता नाहीं। तातै जे उत्तम श्रावक के मन्दिर हैं सो ही मुनि के तन का आश्रय जानना । तातें ऐसा जानता। कि जो मोक्ष-मार्ग है, सो श्रावक के घर तिनकै आधीन है। मुनि-पद बिना, मोत नाहों और श्रावक धर्मात्मा के घर बिना, मुनि के शरीर का सहकारी भोजन होता नाहीं । तातें जो शुभ श्रावकम का घर भोजन देने की नहीं होय। तो मुनि का धर्म नाहीं होय। अरु मुनिधर्म नहीं होय, तो मोक्ष-मार्ग भी नहीं सधै । तातै ऐसा जानना, मोक्ष-मार्ग का आश्रय श्रावक का घर ही है। ऐसा
जान धर्मात्मा श्रावकन कुं शुभ प्राचार रूप प्रवर्तना योग्य है। आगे बुद्धि, धन व तन पाये का फल कहै हैं|| गाथा-बुधिकल तत्व विचारइ, तण फल तव तीच माण चारत्तो। पण फल पूजा दाणउ, बच फल परपीय जन्तु रख सत्तो ॥१५॥
अर्थ-बुधिफल तत्व विचारइ कहिये, बुद्धि का फल-तत्वन का विचारना है । तरा फल तव तीथ मारण चारत्तो कहिये, तन का फल-तप, तीर्थ, ध्यान और चारित्र है। धरण फल पूजा दाणउ कहिये, धन का फलदान पुजा है। वच फल परपीय जन्तु रख सत्तो कहिये, वचन का फल-परको प्रिय दयामयी सत्य बोलना है। भावार्थ--जे सुबुद्धि कू पाय, धर्म-मार्ग भलि के विषयन में प्रवृत्ति करि, पाप करि, शीश अशुभ मार लिया। सा तो बुद्धि भई हो निष्फल भई और जिन भव्य जीवन नै बुद्धि पाय करि, तस्वन का विचार करि,
पाप-कर्म का क्षय व पुण्य का सञ्चय करि, मोक्ष होने का उपाय विचार किया। सो ही बुद्धि पाये का || उत्कृष्ट फल है। मनुष्य शरीर पायक अनेक पापकारी स्थानन में प्रवृत्ता, पर पीड़ा करी, पर-धन हरया.
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