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________________ | १६० प्रमादवशाय हिंसा भई ताके मेटवेकौं पच्चीस श्वासोच्छवास काल तांई कायोत्सर्ग करें। आपत गुण अधिक प्राचार्यादिक मुनीश्वरों की वन्दनाकौं गये होंय अरु गमन करते दोष लागा ताके मेटवेकौं कायोत्सर्ग करें। ताका काल पच्चीस श्वासोच्छ्वास जानना। यति कोई स्थान तजि कोई और ही स्थान जाय तिष्ठे। तो पच्चीस श्वासोच्छवास काल ताई कायोत्सर्ग करें। तनका मल क्षेपवे जांघ, तब आय के कायोत्सर्ग करें। मूत्र क्षे तब कायोत्सर्ग करें। नाक का, मुख का श्लेष्मा क्षेप तब कायोत्सर्ग करें। सो पच्चीस-पच्चीस श्वासोच्छवास काल तांई कायोत्सर्ग करें। ऐसे कहे जे ऊपरि अपने संथम के अतीचार के स्थान तिनके मेटवेको यथायोग्य काल ताई कायोत्सर्ग करि शुद्ध होय, सो गुरु वन्दवे योग्य हैं। कैसे हैं गुरु संसार दशा तैं उदास हैं। तनतें निष्पृह हैं पंचन्द्रिय भोगनते विमुख हैं। आत्मिक रस कर रांचे. धर्म मति, जगत वल्लम, जगत् पूज्य पाप-कर्म ते भयभीत दयानिधान मुनि अपने दोष मेटवेकौं रोसे कायोत्सर्ग करि शुद्ध हो हैं। ऐसे कहे भेद सहित यतीश्वर अनेक गुण सागर पूजवे योग्य हैं। ये ही गुरु उपादेय हैं। पहले कहे कुशुरुन के लक्षण तिन सहित होंय ते कुगुरु हेय हैं । जे गुरु होय शिष्य ते छल करि शिष्य का धन हरै वाकौ अपने पांवन नमाथ मान करै सो कपटी गुरु पाषाण की नाव समान शिष्य के परभव सुधरवै-बिगड़वे का जाकै सोच नाही सो गुरु लोभी आप संसार-सागर डूबँ। और शिष्यनको डोवें। ऐसे गुरु विवेकीन करि तजिवे योग्य हैं। इति गुरु परीक्षा मैं हेय-उपादेय कही। | इति श्रीसुदृष्टितरंगिणी नाम अन्य मध्ये गुरु परीक्षाम आचार्यादि दवा भेद मुनि अरु मुनि योग्य समाचार दश आचारसारजो ग्रन्थानुसार कायोत्सर्ग करने के स्थान तथा कायोत्सर्ग का काल वर्णनो नाम दशमोऽध्यायः समामः ॥ १०॥ आगे धर्म विर्षे हेय-उपादेय कहिये है। तहां प्रथम ही कुधर्म के लक्षण कहिये हैंगाया -फेवलणाणय रहियो कल्याण जीव परघादो। माण जांण धण हर्यो एवं कुधम्मभासियो देवं ॥ ३२॥ अर्थ-जो धर्म केवलज्ञान रहित होय, दया-भाव रहित होय, पर जीव का घातक होय, मान-ज्ञान-धन का हरणेवाला होय, ऐसा होय, सो कुधर्म है। रोसा जिनदेव ने कहा है। भावार्थ----जो केवलज्ञानी के वचन रहित होय, होन ज्ञानी के वचन करि प्ररुप्या होय, दया-भाव रहित हिंसा करवे का जामैं उपदेश होघ । जीव हिंसामैं बड़ा पुण्य बन्ध बताया होय। पराये मान हरवे का छल-बल करि पर अपने पांव नमाव का कथन होय, सो ६६
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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