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________________ 4 सु T ४०२ कराया होय । परस्पर द्वेष- पाड़ि, आप हर्षाया होय । पर के घर में सती, विनयवती भली स्त्री देखि, आप a नहीं सुहाई हो । पर को भलो स्त्रीन कौं देखि तिनकी निन्दा करी होय इत्यादिक पाएन तै पर-भव मैं खोटी स्त्री पावै । २१ फेरि शिष्य प्रश्न किया । हे नाथ ! भली स्त्री कौन पुरायते पावै ? तब गुरु कही - है भव्यात्मा ! जानें पर-स्त्रीन के अवगुण छुड़ाय, उन्हें गुणवती करी होय तथा पर-स्त्रीन के शोलादिक गुण. भरतार के विनय रूप देखि, जाक सुख भया होय तथा पर-स्त्रीन के शोल-गुण की रक्षा करी होय तथा शीलवान् सती स्त्रीन की प्रशंसा करो होय इत्यादिक शुभ भावन तैं शुभ-स्त्री पावै । १२ । तब फेरि शिष्य प्रश्न पूछी। हे नाथ! ये जीव संसार में अपमानी कौन पाप हैं होय ? तब गुरु कही हे भव्य ! जिनने परभ में अनेक जीवन का मान खण्डया होय तथा माता-पिता, गुरुजन का मान नहीं रखा होय तथा देवगुरु-धर्म का अविनय किया होय तथा पर-जीवन कूं अल्प पुरायी जानि तिनका अनादर करि, पर-जीवनकूं दुःख उपजाया होय तथा अपनो महिमा अपने मुख तैं करि, पर कौं निन्दे होंय तथा आप कूं महन्त जानि, दोन जीवन कूं पीड़ा उपजाई होय इत्यादिक पाप भावन हैं, पर भवमैं अपमानी होय । १३ । बहुरि शिष्य प्रश्न करता भया । हे गुरुदेव जी ! जीव जग में कोर्तिमान् कौन पुण्य तैं होय ? तब गुरु कही --जिन जीवन ने अपने मुख पर भव में तोर्थङ्कर, चक्री, कामदेवादिक महापुरुषन के गुण की कीर्ति करी होय । पर की कीर्ति सुनि आप सुख पाया होय । पराये दोष देख आपने दावे होय तथा देव-गुरु-धर्म की महिमा अपने मुखतें करी होय तथा माता-पितादि गुरुजन को विनय सहित सेवा-चाकरी करी होय इत्यादिक पुग्थ भावनतें कीर्तिमान होय है । १४ । तब फेरि शिष्य मस्तक नमाय पूछता भया। भो श्रथज्ञानी! इस जीव का सर्व कुटुम्ब दुःखदायक कौन पाप तैं होय ? तब गुरु कही हे शिष्य जिनने पर के कुटुम्ब में परस्पर साता देखि आपने दुःख मान्या होय । पर के कुटुम्ब में कलह देखि सुख पाया होय तथा पर के घर में परस्पर भ्रातृ-स्नेह देखि अपनी दगाबाजी तें झूठे वचन बनाय इतके उत-उत के इत कहि परस्पर द्वेष कराय हर्ष मान्या होय इत्यादिक पाप ष्ट सर्व कुटुम्बी-जन दुःखदायक होय हैं। २५ । तब फेरि शिष्य पूछी है जगत्पूज्य ! सर्व कुटुम्ब सुखदायक कौन पुण्य तैं होय है ? तब गुरु कहो - है वत्स ! हे आर्य! जाने और के कुटुम्ब में परस्पर द्वेष देखि, ४०२ C रं णी
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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