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________________ DER पालन दया सहित है। सो लला पशु, अन्धा बढ़ा, दुर्बल रोगी इत्यादिक पशून कू निष्प्रयोजन करुणा हेतु तिनकी रक्षा करें यथायोग्य उन माफिक प्रासुक घास रोटो गाल्या जल देय निबन्ध राखि सब जीवन पर दयाश्री।। भाव करि सबही की रक्षा करना योग्य है और जे कसाई हैं सो अपने प्रयोजन पोखने कू असवारीक केऊ दुध । पोवे कं, केऊ भार लादवे कू, केई लड़ाई देखवे कू इत्यादिक अपना विषय पोषने निमित्त स्वार्थकों पशु पाल रक्षा करें। बन्धन मैं राजें। सो ऐसा पालना तो पापकारो है योग्य नाही है जिनका निर्बन्ध राखि स्वच्छन्द उनकी इच्छा प्रमाण दया भावन करि रास तिनकदीन असहाय दुखी जानि रक्षा करें। सो या बात धर्मात्मा को योग्य हो है। भलै प्रकार दया-धर्म अङ्गका पालक तो एक जैनी ही है। औरन कं दया उपजती नाहीं। तातै दया निमित्त यथायोग्य सर्व पशून की रत्ता में पुरुष ही है, दोष नाहीं। ऐसा जानना तथा खेती के करते धरती फाड़ प्रत्यक्ष पचन्द्रिय आदिजीवन को हिंसा होती जयने नेत्रन से देखिये है। परन्तु खेती वारी पावतें दाबि चल्या जाय ताकी करुणा भाव नाहीं होय । तात जेनी दयावान खेती करना योभ्य नाहीं। खेती में दया नाहों और खेटक करनहार शिकारी जीव सो प्रत्यक्ष निर्दयी है । जे दोन, पशु महाभयवान् है सदैव हृदय जिनका वन के विर्षे कोई के पावन का तनिक भी खटका सुनै हैं तो चौंकि उठे हैं। महाभयवन्तः होम इत-उत देखने लागैं हैं और कोई जीव आवता देखी तो भयवान् होय वन में भागि जांय हैं। मारे भय के बस्ती मैं कबहूँ नाहीं आवै हैं । सदैव उद्यान में ही रहैं हैं । सूख तृण वाय, अपने तन को तथा अपने कुटुम्ब की रक्षा करें हैं। भय के मारे काह के खोत में नाहीं घुसें हैं। दूर तें वस्त्रादिक का खेत में विजुकादि देखि, नर बैठा जानि, भागि जांय, ऐसे अज्ञानी हैं। भोले हैं। वन-तृण का भोग करि, नदी-तालावन का जल पो हैं। महाभय तें, महाकठिन हैं जीवें । है। तिनका काहू ते द्वेष नाहीं। काहू का बिगाड़ करें नाहीं। ऐसे बिचारे असहाय-दीन पशु, तिनकू जे प्राशी हते हैं। ऐसे पाप करते जिनका हृदय नाही कप है 1 ते प्राणी पाणचारी, महाकठोर, वज्र समान चित्त के धारी हैं। ऐसे दया रहित जीव, कैसे दुख सागर में जाय मगन होयगे, सो हम नहीं जानें, सर्वज्ञ-भगवान् जाने। ये खोटक-किसब दया रहित है, सो दयावान् जीव के तजवे योग्य है तथा जे राजा हैं तिनका चित्त भी बहुत कठिन होय है। राज्य के निमित्त ते अनेक युद्ध करना। नर हनन, ग्रामादि दाह के पाप कर उन्हें दया नाही होय है। ३० २८९
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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