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________________ 44 का जानेहारा, मोक्ष स्थान नहीं पावें। ज्यों-ज्यों ए भ्रमबुद्धि घने-तपकरै, घने-घने शास्त्रों का पाठ करे त्यों-त्यों मोक्षमार्गत घना-घना अन्तर होता जाय। जैसे कोई द्वीपान्तर का जानेहारा पंथी; राह भल, उलटी राह लागा। ताको जाना तो था पूर्व दिशा को, अरु मार्ग लागा पश्चिम दिशा को। सो यह मार्ग भल्या, 'जैता-जेता रोज चले है त्यों-त्यों पूर्व दिशा तें दूर-दूर होता जाय है। तैसे ही यह भ्रमबुद्धि रोसा जाने है जो मैं भलै पंथ लागा हूँ। ऐसा जानि यह स्वेछाचारी, काहू का उपदेश मानता नाही। तातें इस धर्म-भावना-रहित कों जिन-आज्ञा का उपदेश गुणकारी नहीं। इस वास्ते याके भ्रमजाने की नहीं कहैं। ऐसे तेरे प्रश्न का उत्तर जानना--जो धर्मार्थो का भ्रम जाय और धर्मभावनारहित मिथ्यात्वप्राणी का भ्रम नाही जाय है। जात धर्मार्थो का भ्रम जाय ताके निमित्त जो धर्म धुरन्धर, धर्म के धारी, परम्पराय सांचे धर्म का प्रकाश वांछन हारे, मिथ्यात्वगिरिकों वज्र समानि येसे सुदृष्टि प्राचार्या ई-कोसे हैं आचार्य, जिनेन्द्रदेव को भावाप्रमाण धर्मप्रवृत्ति के करनहारे, मैदशानी, सम्यग्दृष्टि, जिनमत के दास, अनेकान्त मत के समझनेहारे, अनेक नय के ज्ञाता, स्याद्वादी, तत्वन का स्वरूप कहैं हैं। हे एकान्त मत के धारी सुबुद्धि पण्डित हौ ! तुमतें मैं परमार्थ के निमित्त 'जिन' का भाष्या अनेकान्त धर्म, ताको रहसि लैघ कहूँ हूँ। जी हे एकान्त मत के धारी! तू ऐसा माने है, कि सर्व संसारी जीवन के अनेक शरीर हैं। तिन अनेक शरीर में तु एकान्त आत्मा मान है। तू जो रोसे कह है कि एक परमात्मा है ताकी ही शक्ति सर्व जगत् विष घट-घट, जल-थल, कंकरी-पथरी, पवन-पानी आदि सर्वव्यापिनी है। ऐसा भ्रम तेरे पाईये है। सी हे मध्यात्मा ! तू अब भले प्रकार विचार देखि। जो परमात्मा तो निदोष-निर्मल है और सर्व संसारी जीव राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ रूप मलदोष सहित महामलिन हैं। सो हे सुबुद्धि ! निर्मल परमात्मा की शक्ति मलिन, दोष सहित कैसे होय ? और परमात्मा है सो तो महासुखी है। संसारी, सर्व ही राग, द्वेष, जन्म, मरण, क्षुधा, तृषा, वायु, पित्त, ज्वर, कुष्टादिक दुःख तिन करि रहित, सुख का समूह है। संसारी जीव सर्व ही हैं सो इवियोग अनिष्टसंयोग के दुःख, तनदुःख, मनदुःख, धनदुःख इत्यादिक अनेक दुःखसागर विर्षे डूब रहे हैं सो भी हे भव्य ! तू विचारि । जो महासुखी रोगरहित परमात्मा की शक्ति, दुःखमई कसे संभवे? परमात्मा तो सुखी, अविनाशी, निर्दोष जन्म-मरण रहित है तातै परमात्मा की शक्ति होती तो सर्व जीव भी निरोग,
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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