SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री सु ি १५८ पद्मश्या है। चौथे युगल में लेश्या पद्म है। पाँचवें युगल में लैश्या पद्म है। छड़े युगल में पद्म शुक्ल दोय लेश्या हैं। सातवें, आठवें युगल तथा अहमिन्द्रन में लेश्या एक शुक्ल है । इति लेखा । जागे स्वर्ग प्रति देवांगना को उत्कृष्ट बाबु कहिये है। तहां सौधर्म प्रथम स्वर्ग के देवीन की आयु पाँच पल्ध है। ऐसान स्वर्ग के देवन की देवी की आयु सात पल्य की है। आगे तीसरे स्वर्गत लगाय बारहवें पर्यन्त दोय-यथ बथती (बढ़ती ) जानना । फेल्थ--- २,७,६,११,३०२१,३७,१६,२२,२३.२५, २७ अनुक्रम तैं जानना और तेरहवें स्वर्ग की देवीन की आयु चौंतीस पल्य की है और चौदहवें स्वर्ग की देवीन की आयु इकतालीस पल्य को है और पन्द्रहवें स्वर्ग की देवी की आयु अड़तालीस पल्य की है और सोलहवें स्वर्ग की देवोन की आबु पचपन पल्ध की है । ऐसे स्वर्ग प्रति देवीन की आयु कही। इति देवीन की आयु । ऐसे सामान्य दैव-लोक का कथन कह्या । ऐसे अधो-लोक, मध्य-लोक, ऊर्ध्व लोक का व्याशन जामैं होय सो त्रिलोकविन्दु नामा चौदहवाँ पूर्व जानना । ऐसे ग्यारह अङ्ग चौदह पूर्व ज्ञान के धारी होय सो उपाध्याय मुनि हैं। ये गुरु नगन वीतराग पूजवे योग्य हैं और जिनकी तप करने को बड़ी शक्ति होय, नाना प्रकार तप करते शरीर मन वचन शिथिल नहीं होंय सो तपसी जाति के मुनि कहिये। ऐसे दुर्धर तपनकौं तपसी करे तिनका संक्षेप कथन कहिये है। प्रथम जिनेन्द्रगुणसम्पत्ति नाम तप कहिये है । या तप के उपवास तिरेसठ तिनकी विधि सोलह कारण भावना का पड़िया सोलह और पंचकल्याणक की पांचें पांच प्रातिहार्य की आठ आठ, चौंतोस अतिशय की दशैँ बोस और चौदसि चौदह, ऐसे एक-एक तिथि का एक-एक उपवास करे ताके सर्व मिल उपवास त्रेसठ करें। सो यतीश्वर निर्ममत्व इस तपर्क करें हैं। याका नाम जिनगुणसम्पत्ति तप है। आगे श्रुतज्ञान तप कहिये है । याके उपवास एकसौ अठावन । तिनकी विधि, मतिज्ञान के उपवास अठाईस और ग्यारह अङ्ग के उपवास ग्यारह उपक्रम के उपवास दोय । अरु सूत्र के पद अठ्यासी लाख ताके उपवास अठ्यासी । प्रथमानुयोग का उपवास एक और चौदह पूर्व के उपवास चौदह और पांच चूलिका के उपवास पाँच अवधिज्ञान के उपवास षट्। मनःपर्यय के उपवास दोय । केवलज्ञान का उपवास एक ऐसे एक सौ अठावन उपवास, जो यति तनतें निस्पृह होय सौ इस तप को करें है। ऐसा श्रुतिज्ञान तप जानना श्रागे कर्मक्षय तप कहिये है। अष्टकर्म नाश करने के निमित्त तपसो जाति के १५८ DEE
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy