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________________ || ३६ ब तथा ग्यारह बज चौदह पूर्व के ज्ञानधारक उपाध्याय जी हैं ते शुद्ध सर्वदोष रहित ग्रन्थारम्भ करें हैं। तथा और यतीश्वर दीर्घज्ञान के धारी अनेक छन्द अर्थ ललताई शब्द की मिष्टताई सहित ग्रन्थ का प्रारम्भ करनहारे हैं। तथा सर्वयतिन के नाथ गणधर देव नारि ज्ञान के धारी मो सर्व दोषरहित ग्रनानि का प्रारम्भ करें हैं। जो कोई सामान्य ज्ञान के धारी धर्मानुरागी कवीश्वर हैं तिनकी जोड़ विर्षे तथा ग्रन्थारम्भ विर्षे सामान्य-विशेष चूक होयगी। हम पै सर्व प्रकार निर्दोष ग्रन्थारम्भ कैसे बनें है। सामान्य दोष के भयतें ग्रन्धाराम्भ नहिं करिये तो परम्पराय कवीश्वरनि का मार्ग बन्द होय। तात अल्प चूक में पाप नाहीं। पाप तो एक कषायनि में है। जो कषायसहित अपनी मान-बड़ाई के अर्थ स्वैच्छा शब्द अर्थ धरै, जानता भी चूकै, तौ ताके पाप लागे और शुद्ध सरधान सहित अपनी बुद्धि की न्यनता से कोऊ भूल भी रहै तौ विशेष ज्ञानी समारि लेहू। ऐसी विनती कर देनी पाप नाहों। ऐसा जानि किया है। जैसे कोई एक विशेष ज्ञानी, अनेक सामान्य बुद्धि के धारी ज्ञानाभ्यास कर हैं सो अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसारि सर्व बालक पाटी परि लिसें हैं। सो आय-आय विशेष ज्ञानी को दिखाते हैं सो सबकी पाटो देखें हैं जो शुद्ध-शुद्ध लिखा होय ताकी बुद्धि की प्रशंसा करें हैं। कोक की पाटो मैं एक दोय मूल भी होय और सर्व पाटी शुद्ध होय तौ विशेषज्ञानी ताकी भी प्रशंसा करें है। जो एक दोय चूक होय तो बताय देय, अरु कहैं याकी भली बुद्धि है, याने भलो-मलो रहसि सहित पाठ लिखा है । ताते राजी होय । अरु कदाचित् चूक होय सो बतावें हैं। तैसे ही सामान्य बुद्धि के धारी कवीश्वरनि का अभिप्राय है। लो हम अपने ज्ञान की सामर्थ्य प्रमाण, तत्वार्थ अक्षरन का शुभ मिलाप करेंगे। अर कोई सूक्ष्म तत्त्वार्थ भाव हमको न भास, अरु विशेष ज्ञानी को चूक भासै, तो हम पै धर्म स्नेह करि शुद्ध करि लेह । ऐसे दीर्घज्ञानी. जिन आज्ञा प्रमाण, जीव अजीव तत्व के भेदी, ज्ञान द्वारा पाया है यावत तत्त्वभेद का रस जानें, ऐसे धर्मो जीवन से विनती करी है। तब इहाँ कोई तरकी ने कही-सज्जनत कहा विनती करोगे? सज्जन तौ चूक होयगी सो शुद्ध करहींगे। सज्जन जीव दया-प्रतिपालक पुरुषन का सहज ही गैसा स्वभाव है। परन्तु जे दुष्ट पापी हैं तिनते विनती करती योग्य थी, जे दुर्जन स्वभावी पर-निन्दा के करनहारे हैं तिनकौं उपशान्त करने को उनकी विनती करनी मली है ताको कहिये हैं। हे माई! जे दुष्ट है तिनका ३
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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