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कर है। अरु परिणति सामायिक रौं छुटि, अन्त गई होय प्रमादवशात् अन्य ही विकल्प में लागै, सो । द्रव्य-सामायिक है। जो सामायिक करनेहारा भव्य, शुद्धासन करि पाठ करें। सो अर्थ विर्ष चित्त राखि, । सामायिक करै, सो भाव-सामायिक है। यहां प्रश्न—जो सामायिक प्रतिमा तो तीसरी है। बरु यहो दूसरी || प्रतिमा विर्षे व्याख्यान किया। सो क्यों? ताका समाधान-जो सामायिक प्रतिज्ञा का अतिचार रहित धारी तौ तीसरी प्रतिमा में है। परन्तु यहां शिक्षाव्रत में कथन किया, सो साधन रूप कथन है। जैसे—रस विर्षे लड़ने-युद्ध करनहारे पुरुष, सुभट हैं; सो तीर, गोली, तलवार राखें हैं। जो युद्ध में काम पड़े, तौ सुभट अपना पौरुष प्रगट करि, तीर-गोली चलावें। वैरीन कों जीते हैं। सो तौ सुभट शूर ही हैं और उन सुमटों के बालक हैं, सो तिनका भी अभिप्राय अपने बड़ों की नाई युद्ध करि, रण में अस्त्र चलाय, वैरी जीति, यश प्रगट करवे रूप है। सो वह भी अपने बड़ों से शस्त्र-विद्या सीखें हैं। सो ते बालक भी तीर-गोली राख, चलावें हैं। सो इन बालकन कौं, सीखनेहारा कहिये। इन तैं हाल, युद्ध नहीं जीत्या जाय। ये सुभट नाहीं। जब शस्त्र-विद्या सोस्न चुकेंगे तबही सभट कहावेंगे। हाल हास्न र तीन गोली को गिरी के तौसदान में चलावना सीखें हैं। तैसे ही शिक्षाप्रतवाला सामायिक करना सीखे है। सामायिक नामा प्रतिमाधारी नाहीं। यहां कोई अतिचार भी लागै तथा कोई समयान्तर, काल भी उल्लंघन होय. तो होय। कोई अतिचार भी यहां होय । तातै यहाँ शिताव्रत ऐसा कहा है। ये शिक्षाप्रतवाला, अतिचार रूप वैरी को जीति नहीं सके है। | तीसरी प्रतिमा विर्षे, निर्दोष व्रती होय है। ऐसा जानना। इति सामायिक शिक्षाव्रत।। आगे प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत कहिये है। जहाँ सोलह-सोलह पहर का अनशन होय। सर्व काल धमध्यान में अपनी मर्यादा सहित एक स्थान में व्यतीत करें। सो प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत है। इनके अतिचारन का कथन भागे इनकी प्रतिमा वि करेंगे। तहाँ त जानना। इति प्रोषधोपवास। २। आगे भौगोपभोग परिमारण शिक्षाक्त कहिये है। जहाँ एक बार भोगने में आये ही, जो वस्तु अयोग्य हो जाय सो वस्तु, भोग कहावै और जो बार-बार भौगने । में आवे, सो वस्तु उपभोग कहावै है। तहां भोग वस्तु के दोय भेद हैं-एक तो भोग-योग्य वस्तु है। दूसरी भोग-अयोग्य वस्तु है। जहाँ अत्र, मेवा, पकवान् इत्यादिक निर्दोष वस्तु सो तो भोग वस्तु हैं तथा मिष्ट,
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