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________________ पटकाधारी होय। याचना जो रंकवृत्ति ता याचना का धारी होय, सो कुगुरु हैं। आपका अपमान भए तथा आपकौं मनवांछित दान नहीं दिये परको सराप देवेकौं महाक्रोधो होय। आपकं गुरु संज्ञा मानि अवधि होय पर पीड़ा करवेकौं निरदई होय । अरु पराए आश्रयकं वांछता होय और मिष्ट सुर कार गावना-बजावना आदि क्रिया करि अन्य गृहस्थीनकौं राजी करने का ज्याई होय। रसायन रसकूप धातु मारवं की प्रवीणता ! बताय, काले वशीभता की इच्छा होय.एस.तृषा शीत उष्णादि परीषह बाये महाकायर होय। काम विकार रोकवेकौं असमर्थ होय। स्त्री सहित होय तथा मन इन्द्रिय के जीतवेकौं दीन होय तथा इन्द्रिय फाडि तामैं लोह सांकल तथा कड़ी नाथे होय तथा संसारी गृहस्थीन की नाई नाता पालता होय । होली, दिवाली, त्योहार आए बहिन बेटीनकों मेंट देता होय, सो कुगुरु है। ध्यान-अध्ययन विर्षे प्रमादी होय । शरीर के धोवने. पौंछने, खुजावने, पिघावने, लिटावने, उठावने आदि काय शुश्रूषा में प्रवीरा होय । प्राचार्यन की परम्पराय परिपाटो मर्यादा का लोपनेहारा होय । रात्रिविर्षे अन्न-जल का ग्रहण करता होय । अज्ञान तपस्या करता होय और महल, मन्दिर, अटारी बनाय स्थिति करता होय । कूप, बावड़ी, तालाब, बाग बनवायके अपना नाम चलायबे की इच्छा होय । इत्यादिक अनेक भेष बनाय अपनी-अपनी परगति लिए जगत् मैं आपकू गुरुपद माने है। सो र कुगुरुन के लक्षण हेय जानना। इति कुगुरु वर्सन। आगे सुगुरु तरण-तारण, संसार सागरको नौका समान तिनका स्वरूप कहिए हैगाषा-अरिमित जोतव मरणं, तिणघण मुहदुह सफल समभावो । यो गुरु भवदधिणावो पिराई णगणणाणमय जोई ॥२०॥ अर्थ-वैरी अरु मित्र में समभाव होय। जोतब्ध-मरण मैं समभाव होय। तिनका पर कंचन में समान भाव होय। सुख-दुख मैं समभाव होय और जो गुरु मवधि कू नाव समान होय। वीतरागी होय, नग्न होय, ज्ञान-मति होय, सो यतीश्वर हमारे गुरु हैं। भावार्थ-जिन यतोश्वरन के अपनी निन्दा करनहारा कर स्वभावी, अविनयी बना द्वेषी अरु अपनी सेवा का करनहारा विनयवान शिष्य तथा अपना भित्र इन दोऊन मैं समभाव होय, सो गुरु पूज्य हैं। बहुत काल शरीरमैं रहना, सो जोवना 1 अरु अल्पकालमैं तन का तजमा, सो मरण । इस जीवन-मरण दौऊमैं जिनके
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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