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अरु प्रसन्न भये प्रगट होय पुत्रादिक की प्राप्ति यह फल, इत्यादिक जहाँ कथन-उपदेश होय, सो कु-शास्त्र है । अनेक शास्त्र जो परमार्थ कथा रहित, पाप-बन्ध के करनेहारे, हीन ज्ञानी कु-कविन के प्ररूपै स्वेच्छा करि रचे जो रसिक प्रिय सुन्दर श्रङ्गारादि विषयों कर पूर्ण हैं, कु-शास्त्र हैं। क्योंकि ये मोक्ष-मार्ग रहित संसार दशा के बढ़ावनहारे ही हैं। देश जानना ' ने पोसा है। इन ही शरमन की आज्ञा प्रमाण जीव का श्रद्धान सो ही कु-धर्म है। इनका फल अनिष्ट जानि सम्यग्दृष्टिन की दृष्टि मैं सहज ही हेय भार है। इति कु-धर्म कथन । आगे स-धर्म का कथन संक्षेप कहिए है। __गाया-अपरा पर अविरुद्धो णवणय भंगाय सत्तस्याज्जुत्तो। पण पमाण असण्डो सधम्मो जिण भासयो सुदं ॥ ३३ ॥
अर्थ-अपरापर जो आगे-पीछे अन्त साई शुद्ध कथन होय । नव नय, सप्तमङ्ग "स्यात" पद सहित होय पचे प्रमाण करि अखण्डित होय, सो धर्म जिन भाषित शद्ध धर्म है। भावार्थ भगवान की वाणी में जो वस्तु निषेध करी ताका ग्रहण कोई भी जिन-शास्त्र में नाहीं। जैसे-कोई शास्त्रन मैं प्रथम हो सप्त व्यसन का निषेध किया ताका ग्रहण आदितै अन्त ताई कहूँ नाही तथा और क्रोधादि कषाय पाप के अर्थ अभक्ष्यादि अनाचार हिंसादिक पापन का निषेध किया तिनका ग्रहण कोई भी शास्त्रन मैं नाहीं। ताका नाम-आदिअन्त अविरुद्ध कहिये और जो जिस वस्तुकं कहीं तौ निषेधी कहीं ग्रहण करी । सो कथन विरुद्ध रूप है। तातें सत्य-धर्म आदि अन्त शुद्ध है और नव नय के नाम नैगम संग्रह व्यवहार असून शब्द समभिरुढ़ एवं भूत द्रव्यार्थिक और पर्यायाधिक इनका सामान्य अर्थ-जिस वस्तु का प्रारम्भ किए ही ताकौं भई कहिये । सो नैगमनय है । जैसे-कोई पुरुष घर तजि अन्य देशकं गया। सो दस-बीस दिन गये पहुँचेगा। तुरन्त ही वाकै घर बारों को पूछिए जो फलाना कहां है ? तब वह घरबारे कहैं, फलाना देश गया। सो तुरन्त तौ अपने नगर मैं ते ही निकसा नहीं है। परदेश गया काहे के कहे हैं। परन्तु इनकी तरफ तें गया सबसे मिलि बिदा मामि गया तातै इनकी तरफ ते गया कहिए। यह नैगमनय हैं। ऐसे ही अनेक जगह लगाय लेना ।। एक वचन में बहुत का नाम ग्रहण होय, सो संग्रह-नय है । जैसे—काहूने कही वह बाग है । सो बागकछु वस्तु नाही, किसी वृक्ष का नाम बाग नाहों। जुदे-जुदे वृक्ष देखिये, तौ बाग कडू वस्तु नाहीं। परन्तु बहुत वृक्षन का
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