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________________ अनन्तकाल और-और प्रदेशक्षेत्रनि में उपण्या मूवा गिनती में नाहीं आया। ऐसे करते-करते अनन्तकाल पीछे उसही प्रदेश ते लगता दुसरा प्रदेश क्षेत्र में माय जन्म्या तब दूसरा भव गिनती में आया। फेरि मर और-और प्रदेश क्षेत्र में उपण्या-मवा सो नहीं गिना ऐसे प्रमत-भ्रमत अनन्तकाल में दूसरे प्रदेश तें निकसि तीसरा प्रदेश क्षेत्र में उपण्या तब तीसरा मव गिनती भया । ऐसे ही क्रम ते सर्व लोकाकाश के प्रदेश विर्षे जनमैं मरै इम करतें जो काल होय सो दुसरा क्षेत्र परावर्तन.जानना । इति दुसरा क्षेत्र परावर्तन ॥ आगे काल परावर्तन का स्वरूप कहिये है-जो उत्सर्पिणीकाल के बादि समय विष उपजा मूवा फेरि इसही काल में अनेक जन्म-मरण किये सो काल नहीं गिन्या रोसे जन्म-मरण करते एक कालचक्र पूरश भया, फेरि दुसरा कालचक्र लग्या, तामैं आदि के दूसरा समय को तज और काल में उपण्या मया ऐसे करते कई कालचक्र हो गये और पीछे भ्रमते-भ्रमते उत्सर्पिणीकाल के दूसरे समय उपज्या तब दूसरा भव गिनती में बाया, फिर मूवा जन्म्या और काल में उपज्या मुवा, ऐसे करते अनन्तकाल में अनन्त बार जन्म्या भूवा सो नहीं गिन्या। फेरि भ्रमते-भ्रमते अतन्तकाल गये उत्सपिरतीकाल के लगते ही तीसरे समय में उपज्या तब तीसरा भव भथा। ऐसे करते उत्सर्पिणीकाल के चौथे समय में मूवा-उपज्या। पीछे क्रमते पंचमे समय, घ8 समय विर्षे उपण्या मूवा ऐसे एक-एक समय बधता लगाय के बीस कोड़ाकोड़ी काल के जेते समय भये तैतै सर्ब पूरण किये जेता काल लागै सो तीसरा कालपरावर्तन कहिये है। इति तीसरा कालपरावर्तन ॥ आगे चौथा मवपरावर्तन को कहिये है-मो पृथ्वीकाय का प्रथम भवपाय मूक्षा फेरि मर अप तेज वायु वनस्पति बेइन्द्री तेइन्द्री चोइन्द्री पंचइन्द्री असैनी सैनी देव मनुष तिर्यच नारको विष उपज्या मूवा सो भव गिनती में नाहीं आये। ऐसे भ्रमते-भ्रमत अनन्तकाल में पृथ्वीकाय का ही भव पावै तब दोय भव होंथ । पीछे फिर मरा सो चारि गति में भ्रमा सो ऐसा करते अनन्तकाल पीछे जब पृथ्वीकाय का ही भव पावै तब तीनि भव भये ऐसे भ्रमते एक भव का निमित्त अनन्तकाल में मिले सो ऐसा करि असंख्याते भव पृथ्वीकाय के करें। ऐसे अनुक्रम लिये असंख्याते भव अपकाय के करै। ऐसे ही अनुक्रमतें असंख्याते भव | तेजकाय के करे। ऐसे ही अनुक्रम लिये असंख्याते भव वायुकाय के करै। ऐसे ही वनस्पति बेइन्द्री तेइन्द्री | चौइन्द्री पंचेन्द्री तिर्यच के भव अनुक्रमतें कार। असंख्याते भव अनुक्रमते करि पोछे कोई पुण्ययोगत देव होय
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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