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________________ असमर्थ समिध्याशा का प्रसमा किचित प्रकाश हायाताके फलते एक भव देवादि के सख पावे। पीछे थी। उस देवादि-भव में भोगामिलापो चित्त होय, आर्त-रौद्र परिणति करि, संक्लेशता के फल ते. एकेन्द्रिय आदि । ३३४ सु। होय, संसार-भ्रमण कर तथा मिथ्यात्व-कर्म के योग ते कदाचित् मनुष्य में उपजै, तो नीच-कुल मैं धनवान हुकुमवान् होय। राज्य-सम्पदा का धारी, तोव क्रोध-मान-माथा-लोम का धारी, संक्लैशी होय । इत्यादिक सामान्य सुख का धारी होय। पोछे अनेक पाप करि, अनेक हिंसा-दोष उपाय, नरकादि-दुख को प्राप्त होय । ऐसा होय तब मियाज्ञान का प्रकाश, मन्द होय। बहुत-काल मिथ्यात्व का फल रहता नाहीं। जैसे-छारो की अग्नि, प्रथम तौ तेज-प्रकाश कर है। पीछे प्रभा-रहित होय, श्यामता धारि, भस्मी होय । तैसेही मिथ्याज्ञान जानना। ये मिथ्याज्ञान है सो अन्धे के ज्ञान समानि है। जैसे--अन्धा चलें, तब अनुमान से चले। परन्तु यथावत, मार्ग का शुभाशुभ नहीं मासे । तैसे ही मिश्याज्ञान तैं शुद्ध यथार्थ-मार्ग नहीं भासे । यहाँ प्रत्र-जो मिथ्याज्ञानी धर्मात्मा हैं। तिनकं यथावत् पुण्य-पाप का मार्ग नाहीं भास, तौ नौ-नवेयादिक कैसे जांय ? देवादि गति मैं भी जांय हैं सो शुभाशुभ-मार्ग जान बिना जाप का तजन व पुण्य का ग्रहण, तप-संयम-चारित्र का सेवन कैसे संभवै ? ताकों पुरथ-पाप का मार्ग तौ भास है । भले प्रकार मिथ्याज्ञानक अन्धे के ज्ञान समानि कैसे कह्या ? ताका समाधानजो पुण्य-पाप तौ संसार-वन के मार्ग हैं, यथार्थ शुद्ध मोक्ष का मार्ग नाहीं। मिथ्याज्ञान ते मोक्ष-मार्ग नहीं सूझ है। तातै मोक्ष पन्ध के जानवे के अन्ध समानि जानना और सम्यग्ज्ञान है। सो स्वर्ग समानि है। जैसे स्वर्ण कं ज्यों-ज्यों अग्नि पै तपाइए, त्यों-त्यों ताको प्रभा. बढ़वारीको प्राप्त होघ है और कशन शुद्ध होता जाय है । तैसे ही सम्यग्ज्ञान रूप स्वरा है सो ताकी ज्यों-ज्यौं तप रूपी अग्नि कर तपाया जाय, त्यों-त्यों परम विशुद्धता को प्राप्त होय है । सो यह सम्माज्ञान, ज्यों-ज्यों निर्मल होय, त्यों-त्यों बहै। सो बढ़ता-बढ़ता केवलज्ञान पर्यन्त, सम्यग्ज्ञानावधि पूर्ण होय है। सो केवलज्ञान भये, ज्ञान की मर्यादा पूर्ण होय है। सदा रहै है। ये सम्यग्ज्ञान, भये पीछे मिथ्याज्ञान की नाईं जाता नाहीं। सदैव अनन्तकाल ताई रहै है। ये ज्ञान मोक्ष ही करें है। तातै मिथ्याज्ञानी, अङ्ग-पूर्वन कापाठी भी होय, तौ संसार काही कारण है और सम्यग्ज्ञान का अंश भी प्रकट होय, तो बढ़वारी कों प्राप्त होय, केवलज्ञान ही करै है। तातै मिथ्याज्ञान, हेय कह्या है और सम्यग्ज्ञान, उपादेय कया है। ताते
SR No.090456
Book TitleSudrishti Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTekchand
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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